Saturday, January 24, 2015

वसंत पंचमी सरस्वती पूजन,ज्ञान का पर्व-- डा. शशी कान्ता


श्रीमद्भगवगीता में श्री कृष्ण ने दसवें अध्याय के 35वें श्लोक में बसंत ऋतु को कहा है कि वसंत ऋतु मैं ही हूँ। वसंत पंचमी प्रसिद्ध भारतीय त्यौहार है। बसंत पंचमी शुक्ल पक्ष के पाँचवें दिन अथार्त् अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार जनवरी और हिन्दू तिथि के अनुसार माघ के महीने में मनाया जाता है।

बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है क्योंकि यह प्रकृति के लिए सबसे श्रेष्ठ ऋतु है। इस समय पंचतत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्व-जल, वायु धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं। सबको नवप्राण व उत्साह मिलता है। पुष्प खिल उठते है। आकाश स्वच्छ, वायु सुहावनी, सूर्य रुचिकर, पानी अमृत के समान सुखदाता हो जाता है। धरती उसका तो मानो सौदर्य का दर्शन कराने वाली दिखती है। सरसो के पीले फूलों से ढकी धरती लगता है पीले साड़ी पहनी हो। ठंड से ठिठुर पक्षी अब उडऩे, चह चहाते हैं, तो किसान की लहलहाती जो की बालीया, सरसों के फूलों को देखकर नहीं थकते। निर्धन ठंडी की प्रताडऩा से मुक्त होकर सुख की अनुभूति करने लगते है। धरती का पुनर्जन्म हो जाता है। बसंत प्रकृति का सौन्दर्य लौटा देता है।
पौराणिक इतिहास में विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजा युक्त दर्शाया गया है। सपूर्ण संस्कृति की देवी के रूप में दूध के समान श्वेत रूप वाली अधिष्ठात्री देवी महासरस्वती का जन्मदिन मनाया जाता है। वाल्मिकी रामायण के उत्तराखंड में सरस्वती माता ने आपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया था, यह कथा का मनोरम वर्णन है। कहते है देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में धीर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए दो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती जी का स्मरण किया। सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुई। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा-'स्वप्न वर्षा व्यनेकानि'। देव देव ममप्सिनम' यानी मैं कई वर्षा तक सोता रहूँ यही मेरी इच्छा है। ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि है। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी है। गुण शालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की है। अत: इसे वागीश्वरी जयंती व श्री पंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है।
कहते है जिसकी जिभा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बसंत पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को अर्पित है। इस दिन स्कूल, कालेजों में सरस्वती माता की पूजा होती है। इसको ज्ञान का त्यौहार के रूप में शिक्षण संस्थानों में मनाया जाता है और प्रार्थना की जाती है।
ओ माँ सरस्वती, मेरे मस्तिक से अज्ञान को हटा दो और मुझे शाश्वत ज्ञान का आर्शिवाद दो।
बसंत पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। मुख्यत: विद्या शुरू करने, नवीन विद्या प्राप्त करने और गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना है। इसके पीछे कई कारण है। यह पर्व अधिकतर माघ-मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है क्योंकि इस माह में पवित्र तीर्था में स्नान करने का विशेष महत्व है। माघ मास में सूर्यदेव भी उत्तरायण में होते हैं। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवताओं का एक (दिन-रात) मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है।
चंूकि बसंत पंचमी का पर्व इतने शुभ समय में पड़ता है अत: इस पर्व का स्वत: ही आध्यात्मिक, धार्मिक, वैदिक आदि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस दिन सरस्वती पूजन और व्रत रखने से वाणी मधुर होती है, स्मरण शक्ति तीव्र होती है। पति-पत्नी और बधुजनों का कभी वियोग नहीं होता और दीघायु एवम् निरोग प्राप्त होता है।
वाग्देवी सरस्वती को पीला भोग लगाया जाता है और घरों में भोजन भी पीला बनाया जाता है खास कर मीठा चावल। लोग पीले वस्त्र पहनते हैं। बच्चें पतंग उढ़ा कर इस त्यौहार को चार चाँद लगाते हैं। इस मास को 'मधुमास' भी कहते हैं। क्योंकि समूचा वातावरण पुष्पों की सुंगध और भौरों की गूंज भर जाता है। प्रकृति काममय हो जाती है। कलिदास ने यश और ख्याति प्राप्त की देवी कृपा से बाल्मीकी, वसिष्ठ, विश्वामित्र, शौनक और व्यास जी जैसे महान ऋषि देवी-साधना से ही कृतार्थ हुए थे। आओ हम सब इस महान दिन में कुछ ऐसा ही प्रण करे और इस राष्ट्र को भी उस शिखर पर पहुंचाये। मथुरा में अलग-अलग जगह मेला लगता है। भगवान को विशेष श्रृगार करते हैं। वृन्दावन के श्री बाके बिहारी जी मन्दिर में बसंती कक्ष खुलता है। शाह जी के मन्दिर में बंसती कमरा प्रसिद्ध है। पीले रंग का हिन्दुओं का शुभ रंग है।
- डा. शशी कान्ता

Friday, January 23, 2015

उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की 'राष्ट्र' बारे भ्रमक अवधारण है चिन्ताजनक विडम्बना-- कृष्ण लाल ढल्ल

हमारे उपराष्ट्रपति महोदय हामिद अंसारी ने हाल ही में सम्पन्न भारतीय इतिहास कांग्रेस के 75वें अधिवेशन में अपने उद्घाटन भाषण में एक ऐसी बात कह दी जो भारत को एक रस राष्ट्र नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय मानने वाले तत्वों को प्रोत्साहन का कारण बन सकती है।
मीडिया में प्रकाशित समाचार के अनुसार हामिद अंसारी ने अपने सम्बोधन में कहा - 'समरूप राष्ट्र का विचार ही समस्या पैदा करता है ... देश में 4600 से अधिक समुदायों की मौजूदगी के बीच एक प्रकार की पहचान का प्रचार खतरनाक है। इतिहास और आस्था का घालमेल भी खतरनाक है क्योंकि इतिहास आस्था आधारित नहीं हो सकता। दोनों का दायरा अलग-अलग है।'
नहीं कह सकते कि हामिद अंसारी का 'समरूप राष्ट्र' से क्या अभिप्राय: है। जो स्तरीय तौर पर जो इस का अर्थ और भावप्रतीत होता है, वह यह कि अपने देश में आस्था, जाति क्षेत्र या भाषाओं के आधार पर कई उपराष्ट्र हैं और उन उपराष्ट्रों की अलग-अलग पहचान खत्म करके समरूप (एक हद, राष्ट्र बनाने का प्रयास हो रहा है।)
यदि यही उनका अभिप्राय है तो यह न केवल विभाजनकारों और अमान्य है बल्कि उपराष्ट्र पद पर आसीन हामिद अंसारी द्वारा इस का तुरन्त स्पष्टीकरण किये जाने की अनिवार्य आवश्यकता लगता यह है कि उन्होंने राष्ट्र और समान की अवधारण का घाल मेल कर दिया है जो उसी तरह खतरनाक है जैसा उन्हेंने आस्था और इतिहास के घाल मेल को अपने सम्बोधन में करार दिया है।
इस संदर्भ में यहां 'राष्ट्र' की अवधारण की प्रस्तुति सामायिक होगा। राष्ट्र एक जीवमान इकाई है जो समुदायों को जोड़तोड़ से नहीं बनता। एक विशिष्ट भू-भाग में बसे समाज द्वारा लम्बे कालक्रम में जो संस्कृति, जीवन मूल्य, इतिहास और विशिष्ट निष्ठाएँ प्रतिष्ठित होती हैं, उन सबका समुच्चय ही एक राष्ट्र प्रस्तापित करता है। उन्हीं निष्ठाओं के कारण उस राष्ट्र के 'जन' में आपसी आत्मीयता, उस की संस्कृति व इतिहास के प्रति गौरव, मातृभूमि के प्रति भक्ति और इन सबके लिए सम्र्पण, त्याग, बलिदान, प्राक्रम और पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है। एक और तत्व राज्य है जो राष्ट्रीय समाज और देश को व्यवस्था और सुरक्षा देता है और विश्व में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है।
स्पष्ट है कि एक देश के समाज के सभी जनों की राष्ट्रीयता एक ही होती है और उनकी राष्ट्रीयता की भावना में बहुलता, किसी प्रकार का अनुपात या विविधता व विभिन्नता को कोई स्थान नहीं होता। हमने देखा है कि 1947 में इस्लाम मजहब वाले समुदाय को मजहब के आधार पर अलगाव के प्रभाव में एक अलग राष्ट्रीय इकाई मान कर मातृभूमि का एक भाग पाकिस्तान के रूप में प्रस्थापित हो गया। यह यहां उपराष्ट्रों की अवधारणा का परिणाम था।
निश्चय ही बचे भारत में मजहब (आस्था) के आधार पर किसी भी उपराष्ट्र का वजूद कदापि नहीं माना जा सकता। इसी संदर्भ में उपराष्ट्रपति महोदय के 'समरूप' विचार का संज्ञान लिया गया है।
हां, यदि 'समरूप विचार' से उनका अभिप्राय समरूप समाज से है तो वह पूरी तरह ठीक है। हमारा यह प्राचीन समाज जिस संस्कृति का प्रदाता है, उसमें यकीनन न एक रूपता है और न इस दिशा में कोई प्रयास मान्य हो सकता है। भारतीय संस्कृति की तो विशेषता ही यही है कि यहां न केवल अनेकों आस्थाएं मौजूद हैं बल्कि व ह पूरी स्वतन्त्रता व निर्भयता से अपनाई जाती है। कोई आस्था भारत में कभी बलात नहीं तोंपी जाती। इस ---- से समाज को 'समरूप' बनाने की किसी भी कोशिश का विरोध किया ही जाना चाहिए।
सम्भव है, हामिद अंसारी ने कुछ समय से संघ परिवार के हिन्दुत्व के कथित एजेंडे के मुद्दे पर चल रहे विवाद के संदर्भ में यह समझकर अपने विचार प्रगट किये हों कि हिन्दू राष्ट्र मजहब या पंथ का पर्यायवाची है जबकि स्वयंसंघ के प्रमुख मोहन भागवत के अनुसार यह शब्द भौगौलिकार्थी है और भारत को अपना देश मानने वाले सभी हिन्दू हैं।
अन्त में यदि संघ प्रमुख के कथन को हामिद अंसारी विचार और विश्वास के योग्य नहीं समझते तो यहां उनके ध्यानार्थ 1965 में एक चुनाव याचिका को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायलय की पीठ द्वारा व्यक्त हिन्दू व हिन्दुत्व की व्याख्या और हमारे दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा अपनी पुस्तक 'हिन्दू न्यू आफ लाइफ' में व्यक्त विचार उद्धृत हैं।
इन दोनों के अनुसार हिन्दू शब्द भूगौलिकाथी और इतिहास सिद्ध है और हिन्दुत्व व्यापक अर्थों में एक जीवन शैली है, जीवन धारा है जो संस्कृति आधार लिये है और इसमें सभी आस्थाओं को समान मान्यता व सम्मान की व्यवस्था है। हिन्दु राष्ट्र मजहब, पंथ या रिलिजन शब्द का पर्यायवाची नहीं।
इस व्याख्या की दृष्टि से हामिद अंसारी के विचार पूरी तरह हिन्दुत्व सम्मत हैं कि 'समरूप समाज' का प्रयास उचित नहीं किन्तु उन्होंने समरूप समाज की बजाए समरूप राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल कर अपने मन्तव्य को भ्रमक बना दिया है। जो चिन्ताजनक विडम्बना है।
                                                                             - कृष्ण लाल ढल्ल
                                                                                   वरिष्ठ पत्रकार 
                                                                     26 जीएफ सरस्वती बिहार
                                                                                   जालन्धर

घर वापसी युक्ति पूर्ण औचित्य

सर्व साधारण जनता इसको समझती है कि मुसलमान मत से हिन्दू बनाने के क्रम को ''घर वापसी का नाम दिया गया है। आठ सौ साल के मुस्लिम राज्य और लगभग दो सौ साल के अंग्रेजी राज्य में हिन्दुओं को क्रमश: इस्लामियत और ईसाईयत में मतांरित करने के पीछे भावना यही थी कि जब संख्या अधिक हो ताकि राज्य को सहायता प्राप्त हो।
जब वर्ष 1191 में मुस्लिम आक्रमणकारी शहम्बुद्दीन मुहम्मद गौरी ने हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित किया था तो भारत में तो मुस्लिम जनसंख्या नगण्य के बराबर थी या यूँ कहिए कि भारत में मुस्लिम जन संख्या नहीं थी। बल के आधार पर उन्होंने भारत पर राज्य किया।
भारत में इतनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या अरब, अफगानिस्तान, ईरान आदि मुस्लिम देशों से नहीं आई थी। भारत के हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन किया गया था। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत में बसे हिन्दुओं ने अपनी इच्छा से मुस्लिम मत को श्रेष्ठ समझकर अपना धर्म बदला था बल्कि भय और लालच से हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया था। इस प्रकार के अवैद्यरूप से धर्म परिवर्तित लोगों को पुन: अपने धर्म में प्रवेश कराना यथार्थ ''घर वापसी'' है।
जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के अनेकों उदाहरण इतिहास के पन्नों पर हैं। इस प्रकार की घटनाएं इतिहास में कुछ महापुरुषों की हैं। प्रश्न यह कि जबरदस्ती और राज्य द्वारा भय उत्पन्न करके इस प्रकार की घटनाएं हुईं और जगह जगह इस प्रकार से होता था। अपनी जान बचाने और अपने परिवार को भयानक दौर से बचाने के लिए मुसमलान होना स्वीकार करना पड़ता था। सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर को डराया धमकाया गया कि तुम मुसलमान हो जाओ अन्यथा आप को अत्यंत कष्ट दिए जाएंगे। मुसलमान शासकों की योजना थी कि गुरु तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर लेते हैं तो अन्य लोग भी मुसलमान बन जाएंगे। दहली का चांदनी चौक साक्षी है कि गुरु तेग बहादुर जी को किस प्रकार शहीद किया गया।
उनके बलिदान से पहले भाई मतिदास को लोहे की चरखड़ी पर चढ़ा कर उनका एक एक अंग छलनी किया गया। यह सब गुरु तेग बहादुर जी के सामने किया गया ताकि उनके मन में भयानक डर उत्पन्न किया जाए। गुरु जी कैद थे और सुलाखों से भयानक दृश्य देख रहे थे। चरखड़ी क्या है ? दो बड़े बड़े लोहे के चक्कर घूमते हैं और परस्पर टकराते हैं। इन्हीं चक्कड़ों के बीच तीखी लोहे की सुलाखे होती हैं। गुरु तेग बहादुर के साथी भाई मती दास जी ने जब मुसलमान होना स्वीकार न किाय तो चरखड़ी के चक्करों के बीच में तीखी सुलाखों में घुमाया गया जिससे तीखी सुलाखें शरीर में धंस कर खून के फुहारे छूटते थे। परन्तु भाई मतीदास ने मुसलमान होनी स्वीकार न किया। गुरु तेग बहादुर जी का यह दृश्य दिखाया जा रहा ता और कहा जा रहा था कि यदि तुम मुसलमान न बने तो तुम्हारी भी ऐसी दुर्दशा की जाएगी और भी भयानक घटनाएं उनके सामने की गईं ताकि गुरु जी डरकर मुसलमान बन जाएं। श्री गुरु जी के सामने भाई मती दास के अतिरिक्त गुरु जी के भक्त भाई सती दास और भाई दयाला को भी मौते के घाट उतारा गया ताकि भयभीत हो कर गुरु तेग बहादुर जी मुसलमान बन जाएं। धर्म प्रेमी गुरु तेग बहादुर जी ने मुसलमान बनना स्वीकार न किया तो सबके सामने उनका सिर काट दिया गया और मुसलमान सरकार ने कहा कि इनका मृतक शरीर यही रहेगा ताकि लोग इनकी दुर्दशा देखें। सरकार के सजग पहरे में किस प्रकार उनके हिन्दुओं ने गुप्त रूप से शरीर को उठाकर गुप्त रूप से सम्मान पूर्वक अंतिम संस्कार किया - यह इतिहास की वार्ता है। कटे हुए सिर को जीवन सिंह वीर पुरुष ने छुप छुप कर देहली से आनंदपुर साहिब लाया जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया।
इसी प्रकार वीर हकीकत राए किशोर अवस्था के बालक ने मुसलमान होना स्वीकार न किया तो जनता के सामने उसका शीश काट दिया गया। गुरु गोविंद सिंह के नन्हें बच्चों ने जब मुसलमान बनने से इंकार कर दिया तो उन्हें जीवित दीवार में चुनवा दिया गया। छोटे छोटे बच्चों ने मुसलमान बनने की बजाए बलिदान होना उचित समझा। सिखों के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव को जितने कष्ट देकर शहीद किया गया उसको लिखते हुए कलम कांपती है। उनका एक ही दोष था कि मुसलमान बनने को तैयार नहीं थे। ऊपरलिखित घटनाओं का निकर्ष यही है कि भारत में हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की प्रक्रिया विद्यमान थी। ऊपर की कुछ घटनाएं लोगों के सामने आई और इतिहास का भाग बन गई परन्तु ऐसी अनेकों घटनाएं होती रही जो लोगों के सामने न आई और मुसलमान बनाने का क्रम चलता रहा। मुल्लाओं, शेखों, हाजियों आदि द्वारा निश्चित कार्यकरम चलता था कि अमुक गांव बस्ती के हिन्दुओं को मुसलमान बनाओ या किसी प्रतिष्ठित हिन्दू को मुसलमान बनाओ ताकि उन्हें देखकर अन्य बहुत से लोग मुसलमान बन जाएंगे।
इतिहास पर दृष्टिपात करें तो भारत के सुदूर दक्षिण में केरला में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। यह कैसे ? प्रथम विश्व युद्ध वर्ष 1918 में समाप्त हुआ। इसमें ब्रिटिश आदि मित्र देशों की विजय हुई। जर्मन आदि देशों की पराजय हुई। टर्की उस युद्ध में जर्मन देश के साथ था। टर्की उस समय दुनिया के मुस्लिम देशों का खलीफा था।
यह मुस्लिम जगत का सबसे बड़ा धार्मिक पद था। अंग्रेजों ने आधिकारिक कानूनी घोषणा के द्वारा टर्की का खलाफत पद समाप्त कर दिया था। खलाफत के विरुद्ध इस घोषणा से दुनिया के मुसलमानों के मन में रोष उत्पन्न हुआ। भारत के मुसलमानों ने खलाफत आंदोलन आरम्भ कर दिया। साधारणतया भारत में मुस्लिम आंदोलन किसी प्रकार का हो उसका गुस्सा हिन्दुओं के विरुद्ध हो जाता है। खलाफत आंदोलन में केरला में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं के विरुद्ध लड़ाई झगड़े आरम्भ कर दिए और वहां हिन्दू जनसंख्या को जबरदस्ती मुसलमान बनाया। हिन्दू हृदय सम्राट वीर सावरकर ने हिन्दू हित के लिए आवाज उठाई परन्तु कांग्रेस खलाफत आंदोलन की समर्थक बनी हुई थी। सावरकर जी ने अपने उपन्यास ''मोपला'' में इस का विस्तीर्ण वर्णन किया है। सारे भारत को एक ओर छोड़ कर सुदूर दक्षिण भाग में समुद्र के किनारे बसा केरला इसाईकरण मुस्लिम बहुल प्रांत बन गया जो विस्मय की बात है।
''घर वापसी'' के संबंध में मुसलमानों को समझना कि तुम्हारे बाप-दादा आदि पूर्व वंशजों को जबरदस्ती मुसलमान बाया गया। अत: प्रतिकार स्वरूप हिन्दू धर्म को अपनाना श्रेयष्क है। कहीं भी भारत में मुसलमानों को समझाना कि इतिहास में जबरदस्ती मुसलमान बनाने के प्रचुर उदाहरण हैं। मुसलमान से हिन्दू बनना अपने पुराने घर में आने के सामान है। युक्तियों द्वारा सिद्ध है कि घर वापसी पूर्ण औचित्य पर आधारित है।
प्यारा लाल बेरी
सम्पादक ''सेवा संस्कार'' पत्रिका

सामाजिक समरसता

       

'सामाजिक समरसता' एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से कार्यान्वित करना आज समाज एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम 'सामाजिक समरसता' के अर्थ का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। संक्षेप में इसका अर्थ है सामाजिक समानता। यदि व्यापक अर्थ देखें तो इसका अर्थ है - जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों के मध्य एकता स्थापित करना। समरस्ता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना।

यदि देखा जाये तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के सैंकड़ों वर्षों में आक्रमणकारियों द्वारा हमारे धार्मिक ग्रन्थों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी गई जिससे उनमें कई विकृतियां आ गई जिसके कारण आज भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वेदों में जाति के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बतायी गयी है। जैसे कि ब्राह्मण का पुत्र वही कर्म करने से ब्राह्मण हुआ एवं शूद्र का पुत्र शूद्र क्योंकि जो व्यक्ति जैसा कार्य करता था उसी अनुसार उसे नाम दिया गया। समय के साथ-साथ इन व्यवस्थाओं में अनेक विकृतियां आती गई जिसके परिणामस्वरूप अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म हुआ। इन सबके कारण जातिगत भेद-भाव, छूआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। इसी के चलते उच्चवर्ग एवं निम्नवर्ग का जन्म हुआ। यह भेदभाव इतना बढ़ गया कि उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लोगों को हृेय दृष्टि से देखने लगा और वे अधिकाधिक पिछड़ते गए। मंदिरों में प्रवेश पर रोक, शिक्षण संस्थानों में भेदभाव, सार्वजनिक समारोहों में उनकी अनदेखी ऐसे कई कारण हैं जिसके कारण यह लोग उपेक्षित होते गये। उच्च वर्ग के लोग इन लोगों के घर आना जाना तो क्या उनके हाथ का पानी पीना भी धर्म भ्रष्ट हुआ मानने लगे। जाति-भेद का दोष ही है जिससे समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। जब हम जाति के आधार पर किसी व्यक्ति का अपमान करते हैं तो इससे उसकी मानसिक क्षति होती है, मन में कुंठा का भाव उत्पन्न होता है। उसकी सोच केवल अपने तक ही सीमित हो जाती है और वह अपनी इस संकुचित सोच के आवरण में अपने देश या समाज का हित नहीं सोच पाता। जाति भेद के संदर्भ में यहां एक छोटी सी घटना उल्लेखनीय है। कई वर्ष पूर्व एक ब्रह्मण देवता थे। वे छूआछूत को बहुत मानने वाले थे किन्तु उनकी धर्म पत्नी बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाली थी। एक दिन घर पर पानी न होने के कारण पण्डिताईन ने पानी पड़ोसी कुम्हार के घर से लाकर पण्डित जी को दे दिया, पता चलने पर पण्डित बहुत क्रोधित हुए और पानी का गिलास दूर फैंक दिया। जब भोजन करने बैठे तो पण्डिताईन ने केवल रोटी परोसी, पण्डित जी ने पूछा कि सब्जी नहीं है तो उनकी पत्नी ने उत्तर दिया कि सब्जी तो फैंक दी क्योंकि सब्जी जिस हांडी में बनी थी वो हांडी कुम्हार के घर की बनी थी। उन्होंने जब दूध की मांग की तब भी यही उत्तर मिला। जैसे तैसे भोजन कर विश्राम के लिए चारपाई ढूंढने लगे तो पंडिताईन ने कहा वो तो मैंने तोड़ दी क्योंकि वह भी तो निम्न जाति के व्यक्ति ने बनायी थी। अब तो पण्डित जी अत्यन्त क्रोधित हुए और बोले ऐसा कर कि सारे घर को ही आग लगा दे। इस पर पण्डिताईन ने बड़े शान्त भाव से उत्तर दिया कि मैं भी यही सोच रही हूँ क्योंकि यह घर भी तो निम्न जाति के मजदूरों द्वारा ही तो निर्मित है। इस पर पण्डित जी की आँखे खुली कि हम अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं यदि वे लोग यह सब कार्य न करें तो इनके अभाव में जीवन कठिन हो जायेगा। इन लोगों के साथ भेदभाव या ईष्र्या द्वेष रखना बहुत बड़ी भूल है। इसके लिए उन्होंने पण्डिताईन जी को धन्यवाद भी दिया। यहां इस कहानी का अर्थ यह लेना चाहिए कि अपने आप में प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है। समाज के रूप में हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। यह किसी एक व्यक्ति, जाति, वर्ण या समुदाय विशेष से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है। समाज की सम्पूर्णता एवं उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या समुदाय का हो उसका सहयोग आवश्यक है। जिस प्रकार से शरीर का प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है अर्थात् विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही शरीर का निर्माण करते हैं उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तिवहीन है क्योंकि विकास सामूहिकता में ही होता है। व्यक्ति के वर्ण का नहीं कर्म का महत्व है।

किन्तु इन सभी कुप्रथाओं की जड़ें समाज में इतनी सुदृढ़ हो चुकी हैं कि इनका पूर्ण रूप से उन्मूलन करना निश्चित रूप से एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस कार्य को करने के लिए अनेक वर्षों से कई संत, ऋषि समाज-सुधारक एवं कई समाज सेवी संस्थायें निरन्तर कार्यरत हैं। डा. अम्बेदकर ने इसे संवैधानिक रूप दिया जिससे समाज में समानता लाने के प्रयासों को काफी सफलता भी मिली है। प्रत्येक नागरिक को उसकी जाति, पंथ, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षमता के आधार पर हर क्षेत्र में समान अधिकार दिये गये हैं। लोगों के पढ़े-लिखे हो जाने से विभिन्न विभागों में कार्यरत होने से आर्थिक समानता में तो वृद्धि हुई ही है इसी के साथ लोगों का स्थानांतरण होने लगा है। बड़े शहरों में लोगों को आस-पास के लोगों की जाति उच्च है या निम्न इससे कोई अन्तर नहीं होता। लोग आपस में घुलने-मिलने लगे हैं किन्तु अभी छोटे कस्बों एवं गांवों में यह समस्या पूर्ववत ही बनी हुई है।
इस दिशा में रा. स्वं. संघ एक ऐसी संस्था है जो गत 90 वर्षों से यानि कि जब से इस संस्था का जन्म हुआ है निरन्तर कार्य कर रही है। इसके संस्थापक पंडित पूजनीय हैडगेवार जी अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव से पूर्णतय: दूर थे बल्कि कट्टर विरोधी थे। संघ में इस बात का कोई अन्तर नहीं है कि कोई कार्यकर्ता किस जाति से सम्बन्धित है। सभी का व्यवहार एवं मानसिकता समरसता पूर्ण है। 1932 में डा. हैडगेवार जी ने घोषणा की कि रा. स्वं. संघ के सात वर्ष के कार्यकाल में ही संघक्षेत्र से जातिभेद एवं अस्पृश्यता पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता को 1934 में वर्धा के संघ शिविर में महात्मा गांधी ने भी जाना, जब उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं को एक ही पंक्ति में एक साथ भोजन करते देखा इस पर उन्होंने अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त की। पंडित पूजनीय श्री गुरू जी ने भी कहा है, ''हिन्दू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकती है। तृतीय सर संघचालक मा. श्री बाला जी देवरस जी ने भी कहा है -If untouchability is not wrong, then nothing is wrong in this world, यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो इस संसार में कुछ भी गलत नहीं है इसे हर हाल में मिटाया जाना चाहिए। वर्तमान सरसंघचालक मा. श्री मोहन भागवत जी ने भी दलितों को साथ लेकर चलने की ही बात की है। सामाजिक समरसता संघ की पाँच मुख्य गतिविधियों में से एक है और संघ के कार्यकर्ता इसे बढ़ाने की दिशा में निरन्तर कार्य कर रहे हैं। संघ आदिवासी क्षेत्रों में भी समरसता बढ़ाने हेतु प्रयासरत है। संघ के ही उप संगठन विश्व हिन्दू परिषद एवं सेवा भारती निम्न जातियों में सेवा एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। रा. स्वं संघ का तो काम पहले से ही यह रहा है जाति भावना से ऊपर ऊठकर समाज को संगठित करना। समग्र समाज को संगठित करने का कार्य कई  वर्षों से हो रहा है। पंडित पूजनीय श्री गुरू जी ने तो इस हिन्दू (भारत) भूमि पर रहने वाले सभी व्यक्तियों को सहोदर कहा है-
''हिन्दवे सोदरा सर्वे न हिन्दू पवितोभवेत्
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा मम मंत्र: समानता'

समरसता का अर्थ ही समाज को एकजुट करना एवं पारस्परिक भेदभाव को समाप्त करना है। यह कार्य किसी एक व्यक्ति या संस्था का नहीं है। इसके लिए सामूहकि प्रयासों की आवश्यकता है। यह एक सामाजिक आन्दोलन है, इस बुराई का खात्मा जागरूक समाज के द्वारा ही किया जा सकता है। तभी जाकर समाज में वास्तविक समरसता का भाव उत्पन्न होगा। लोगों को जागरूक करने के लिए उनमें प्रेम एवं अपनत्व का भाव जगाने की आवश्यकता है। कुंठित मनों से विषमता की भावना को दूर करने की आवश्यकता है। यह भावना दूर करने के लिए उनके साथ परस्पर प्रेम एवं सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे सभी लोग जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्र की उन्नति में सहयोग करेंगे। इससे राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सकेगा। यदि किसी राष्ट्र का समाज संगठित होता है तो बाहरी शक्तियां भी उस राष्ट्र के विरुद्ध किसी षड्यंत्र में सफल नहीं हो पाती। भारतीय संस्कृति तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को मानने वाली है। यदि यहां के लोगों को इस बात का आभास हो जाये और वे आत्म साक्षात्कार कर पायें एवं अपनी शक्ति को पहचाने तो भारत माता फिर से उसी सर्वोच्च सिंहासन पर स्थित होगी जहां कभी यह पहले आरूढ़ थी। भारत वर्ष फिर से एक बार विश्व गुरु होगा इसमें कोई संदेह नहीं। यह कार्य केवल बातों से नहीं प्रयासों से होगा। कई राजनीतिक लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इस विषय में बातें तो बहुत करते हैं किन्तु व्यवाहिक रूप में कुछ नहीं करतेे किन्तु उन्हें समझना होगा कि इस दिशा में उठाया गया प्रत्येक साकारात्मक कदम हमें सफलता की ओर प्रवृत करेगा। आवश्यकता है लोगों को परस्पर प्रेम एवं सहयोग के प्रति जागरूक करने की ताकि सामाजिक समरसता का अर्थ सही रूप में साकार हो सके। ऐसे में प्रसिद्ध कवि आचार्य बलवन्त जी की काव्य रचना की कुछ पंक्तियां स्मरण हो आती हैं -
इन दीपों से दूर न होना, अन्तर्मन का अंधियारा।
इनसे प्रकट न हो पायेगी, मन में ज्योतिर्मय धारा।
प्रादुर्भूत न हो पायेगा शाश्वत् स्वर ओंकार का।
चलो दिवाली आज मनायें, दीया जला कर प्यार का।
मोनिका गुप्ता,
मोगा