Friday, January 23, 2015

सामाजिक समरसता

       

'सामाजिक समरसता' एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से कार्यान्वित करना आज समाज एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम 'सामाजिक समरसता' के अर्थ का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। संक्षेप में इसका अर्थ है सामाजिक समानता। यदि व्यापक अर्थ देखें तो इसका अर्थ है - जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों के मध्य एकता स्थापित करना। समरस्ता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना।

यदि देखा जाये तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के सैंकड़ों वर्षों में आक्रमणकारियों द्वारा हमारे धार्मिक ग्रन्थों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी गई जिससे उनमें कई विकृतियां आ गई जिसके कारण आज भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वेदों में जाति के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बतायी गयी है। जैसे कि ब्राह्मण का पुत्र वही कर्म करने से ब्राह्मण हुआ एवं शूद्र का पुत्र शूद्र क्योंकि जो व्यक्ति जैसा कार्य करता था उसी अनुसार उसे नाम दिया गया। समय के साथ-साथ इन व्यवस्थाओं में अनेक विकृतियां आती गई जिसके परिणामस्वरूप अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म हुआ। इन सबके कारण जातिगत भेद-भाव, छूआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। इसी के चलते उच्चवर्ग एवं निम्नवर्ग का जन्म हुआ। यह भेदभाव इतना बढ़ गया कि उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लोगों को हृेय दृष्टि से देखने लगा और वे अधिकाधिक पिछड़ते गए। मंदिरों में प्रवेश पर रोक, शिक्षण संस्थानों में भेदभाव, सार्वजनिक समारोहों में उनकी अनदेखी ऐसे कई कारण हैं जिसके कारण यह लोग उपेक्षित होते गये। उच्च वर्ग के लोग इन लोगों के घर आना जाना तो क्या उनके हाथ का पानी पीना भी धर्म भ्रष्ट हुआ मानने लगे। जाति-भेद का दोष ही है जिससे समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। जब हम जाति के आधार पर किसी व्यक्ति का अपमान करते हैं तो इससे उसकी मानसिक क्षति होती है, मन में कुंठा का भाव उत्पन्न होता है। उसकी सोच केवल अपने तक ही सीमित हो जाती है और वह अपनी इस संकुचित सोच के आवरण में अपने देश या समाज का हित नहीं सोच पाता। जाति भेद के संदर्भ में यहां एक छोटी सी घटना उल्लेखनीय है। कई वर्ष पूर्व एक ब्रह्मण देवता थे। वे छूआछूत को बहुत मानने वाले थे किन्तु उनकी धर्म पत्नी बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाली थी। एक दिन घर पर पानी न होने के कारण पण्डिताईन ने पानी पड़ोसी कुम्हार के घर से लाकर पण्डित जी को दे दिया, पता चलने पर पण्डित बहुत क्रोधित हुए और पानी का गिलास दूर फैंक दिया। जब भोजन करने बैठे तो पण्डिताईन ने केवल रोटी परोसी, पण्डित जी ने पूछा कि सब्जी नहीं है तो उनकी पत्नी ने उत्तर दिया कि सब्जी तो फैंक दी क्योंकि सब्जी जिस हांडी में बनी थी वो हांडी कुम्हार के घर की बनी थी। उन्होंने जब दूध की मांग की तब भी यही उत्तर मिला। जैसे तैसे भोजन कर विश्राम के लिए चारपाई ढूंढने लगे तो पंडिताईन ने कहा वो तो मैंने तोड़ दी क्योंकि वह भी तो निम्न जाति के व्यक्ति ने बनायी थी। अब तो पण्डित जी अत्यन्त क्रोधित हुए और बोले ऐसा कर कि सारे घर को ही आग लगा दे। इस पर पण्डिताईन ने बड़े शान्त भाव से उत्तर दिया कि मैं भी यही सोच रही हूँ क्योंकि यह घर भी तो निम्न जाति के मजदूरों द्वारा ही तो निर्मित है। इस पर पण्डित जी की आँखे खुली कि हम अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं यदि वे लोग यह सब कार्य न करें तो इनके अभाव में जीवन कठिन हो जायेगा। इन लोगों के साथ भेदभाव या ईष्र्या द्वेष रखना बहुत बड़ी भूल है। इसके लिए उन्होंने पण्डिताईन जी को धन्यवाद भी दिया। यहां इस कहानी का अर्थ यह लेना चाहिए कि अपने आप में प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है। समाज के रूप में हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। यह किसी एक व्यक्ति, जाति, वर्ण या समुदाय विशेष से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है। समाज की सम्पूर्णता एवं उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या समुदाय का हो उसका सहयोग आवश्यक है। जिस प्रकार से शरीर का प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है अर्थात् विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही शरीर का निर्माण करते हैं उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तिवहीन है क्योंकि विकास सामूहिकता में ही होता है। व्यक्ति के वर्ण का नहीं कर्म का महत्व है।

किन्तु इन सभी कुप्रथाओं की जड़ें समाज में इतनी सुदृढ़ हो चुकी हैं कि इनका पूर्ण रूप से उन्मूलन करना निश्चित रूप से एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस कार्य को करने के लिए अनेक वर्षों से कई संत, ऋषि समाज-सुधारक एवं कई समाज सेवी संस्थायें निरन्तर कार्यरत हैं। डा. अम्बेदकर ने इसे संवैधानिक रूप दिया जिससे समाज में समानता लाने के प्रयासों को काफी सफलता भी मिली है। प्रत्येक नागरिक को उसकी जाति, पंथ, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षमता के आधार पर हर क्षेत्र में समान अधिकार दिये गये हैं। लोगों के पढ़े-लिखे हो जाने से विभिन्न विभागों में कार्यरत होने से आर्थिक समानता में तो वृद्धि हुई ही है इसी के साथ लोगों का स्थानांतरण होने लगा है। बड़े शहरों में लोगों को आस-पास के लोगों की जाति उच्च है या निम्न इससे कोई अन्तर नहीं होता। लोग आपस में घुलने-मिलने लगे हैं किन्तु अभी छोटे कस्बों एवं गांवों में यह समस्या पूर्ववत ही बनी हुई है।
इस दिशा में रा. स्वं. संघ एक ऐसी संस्था है जो गत 90 वर्षों से यानि कि जब से इस संस्था का जन्म हुआ है निरन्तर कार्य कर रही है। इसके संस्थापक पंडित पूजनीय हैडगेवार जी अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव से पूर्णतय: दूर थे बल्कि कट्टर विरोधी थे। संघ में इस बात का कोई अन्तर नहीं है कि कोई कार्यकर्ता किस जाति से सम्बन्धित है। सभी का व्यवहार एवं मानसिकता समरसता पूर्ण है। 1932 में डा. हैडगेवार जी ने घोषणा की कि रा. स्वं. संघ के सात वर्ष के कार्यकाल में ही संघक्षेत्र से जातिभेद एवं अस्पृश्यता पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता को 1934 में वर्धा के संघ शिविर में महात्मा गांधी ने भी जाना, जब उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं को एक ही पंक्ति में एक साथ भोजन करते देखा इस पर उन्होंने अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त की। पंडित पूजनीय श्री गुरू जी ने भी कहा है, ''हिन्दू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकती है। तृतीय सर संघचालक मा. श्री बाला जी देवरस जी ने भी कहा है -If untouchability is not wrong, then nothing is wrong in this world, यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो इस संसार में कुछ भी गलत नहीं है इसे हर हाल में मिटाया जाना चाहिए। वर्तमान सरसंघचालक मा. श्री मोहन भागवत जी ने भी दलितों को साथ लेकर चलने की ही बात की है। सामाजिक समरसता संघ की पाँच मुख्य गतिविधियों में से एक है और संघ के कार्यकर्ता इसे बढ़ाने की दिशा में निरन्तर कार्य कर रहे हैं। संघ आदिवासी क्षेत्रों में भी समरसता बढ़ाने हेतु प्रयासरत है। संघ के ही उप संगठन विश्व हिन्दू परिषद एवं सेवा भारती निम्न जातियों में सेवा एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। रा. स्वं संघ का तो काम पहले से ही यह रहा है जाति भावना से ऊपर ऊठकर समाज को संगठित करना। समग्र समाज को संगठित करने का कार्य कई  वर्षों से हो रहा है। पंडित पूजनीय श्री गुरू जी ने तो इस हिन्दू (भारत) भूमि पर रहने वाले सभी व्यक्तियों को सहोदर कहा है-
''हिन्दवे सोदरा सर्वे न हिन्दू पवितोभवेत्
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा मम मंत्र: समानता'

समरसता का अर्थ ही समाज को एकजुट करना एवं पारस्परिक भेदभाव को समाप्त करना है। यह कार्य किसी एक व्यक्ति या संस्था का नहीं है। इसके लिए सामूहकि प्रयासों की आवश्यकता है। यह एक सामाजिक आन्दोलन है, इस बुराई का खात्मा जागरूक समाज के द्वारा ही किया जा सकता है। तभी जाकर समाज में वास्तविक समरसता का भाव उत्पन्न होगा। लोगों को जागरूक करने के लिए उनमें प्रेम एवं अपनत्व का भाव जगाने की आवश्यकता है। कुंठित मनों से विषमता की भावना को दूर करने की आवश्यकता है। यह भावना दूर करने के लिए उनके साथ परस्पर प्रेम एवं सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे सभी लोग जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्र की उन्नति में सहयोग करेंगे। इससे राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सकेगा। यदि किसी राष्ट्र का समाज संगठित होता है तो बाहरी शक्तियां भी उस राष्ट्र के विरुद्ध किसी षड्यंत्र में सफल नहीं हो पाती। भारतीय संस्कृति तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को मानने वाली है। यदि यहां के लोगों को इस बात का आभास हो जाये और वे आत्म साक्षात्कार कर पायें एवं अपनी शक्ति को पहचाने तो भारत माता फिर से उसी सर्वोच्च सिंहासन पर स्थित होगी जहां कभी यह पहले आरूढ़ थी। भारत वर्ष फिर से एक बार विश्व गुरु होगा इसमें कोई संदेह नहीं। यह कार्य केवल बातों से नहीं प्रयासों से होगा। कई राजनीतिक लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इस विषय में बातें तो बहुत करते हैं किन्तु व्यवाहिक रूप में कुछ नहीं करतेे किन्तु उन्हें समझना होगा कि इस दिशा में उठाया गया प्रत्येक साकारात्मक कदम हमें सफलता की ओर प्रवृत करेगा। आवश्यकता है लोगों को परस्पर प्रेम एवं सहयोग के प्रति जागरूक करने की ताकि सामाजिक समरसता का अर्थ सही रूप में साकार हो सके। ऐसे में प्रसिद्ध कवि आचार्य बलवन्त जी की काव्य रचना की कुछ पंक्तियां स्मरण हो आती हैं -
इन दीपों से दूर न होना, अन्तर्मन का अंधियारा।
इनसे प्रकट न हो पायेगी, मन में ज्योतिर्मय धारा।
प्रादुर्भूत न हो पायेगा शाश्वत् स्वर ओंकार का।
चलो दिवाली आज मनायें, दीया जला कर प्यार का।
मोनिका गुप्ता,
मोगा

2 comments:

  1. सुंदर व् प्रेरक लेख के लिए मोनिका बहिन जी को बहुत बहुत बधाई ।

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