Tuesday, March 24, 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ -व्यक्ति निर्माण का महायज्ञ -- श्री विजय नड्ढा जी

शायद बहुत ही कम देश्वासिओं को पता होगा  कि मई, जून की भयंकर गर्मीं में जब लोग अपने परिवार के साथ मनाली, मंसूरी या कश्मीर जैसे ठंडे स्थानों में आनन्द मनाने जाते हैं वहीँ हर साल लगभग 20,000 युवा व् प्रौढ़ कठोर साधना के लिए स्वयं को समर्पित करते हैं। संघ की कार्य पद्धति का ही परिणाम है कि बिना किसी शोर-शराबे के यह साधना गत आठ दशकों से निरंतर चलती आ रही है। यहाँ रोचक और बहुतों को हैरान करने वाली बात होगी कि इन वर्गों में भोजन, वर्दी तथा वर्ग स्थान तक आने जाने का खर्चा स्वयंसेवक स्वयं वहन करते हैं। विश्व की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी पूरी शक्ति देशभक्त, चरित्र एवं अनुशाशन से युक्त नागरिक निर्माण करने में लगाती है। अपनी स्थापना के तुरंत बाद संघ बिना किसी प्रचार के साधारण सी दिखने वाली शाखा के द्वारा अपनी साधना में जुट गया। इसी अद्भुत कार्य शैली के बल पर आज संघ भारत में एक शक्ति बन चुका है। संघ देश प्रेमिओं के लिए आशा और विश्वास वहीँ देश विरोधी शक्तिओं को अपनी राह में रोड़ा दिखता है। इसी कारण संघ का भारी विरोध भी होता है। संघ की कठोर प्रक्रिया से निकले लाखों स्वयंसेवक देश सेवा में अपना योगदान डाल रहे हैं। यहाँ यह जानने योग्य है की ज्ञात स्वयमसेवकों से अज्ञात स्वयंसेवक कई  गुणा अधिक हैं जो मूक साधन में लगे हुए हैं। स्वयंसेवक के जीवन का सूत्र ही है-

तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित।

चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं।। संघ की मौन लेकिन निरंतर साधना के कारण ही आज देश की बागडोर स्वयंसेवकों के हाथ में है। देश वासिओं को स्वयंसेवकों से बहुत आशा है। देश स्वयंसेवकों पर आँख बंद कर विश्वास भी करता है। रोचक बात ये है की राजनैतिक कारणों से संघ का विरोध करने वाले अनेक लोग व्यक्तिगत रूप में संघ के प्रशंशक हैं। और अपने मन की यह बात वे सार्बजनिक तौर पर व्यक्त करते भी रहते हैं। इस वर्ष के प्रशिक्षण वर्ग भी प्रारम्भ हो चुके हैं। वर्गों का प्रकार - सात दिन का प्राथमिक शिक्षा वर्ग इसके बाद 20-20 दिन के प्रथम और द्वितीय वर्ष और ऑपचारिक प्रशिक्षण का अंतिम पड़ाव 30 दिन का तृतीय वर्ष। यहाँ उलेखनीय है कि जहाँ प्राथमिक वर्ग अपने जिला प्रथम व् द्वितय वर्ष अपने राज्य में होता है वहीँ  तृतीय वर्ष केवल नागपुर में ही होता है। इन्ही वर्गों से प्रेरणा प्राप्त कर हर साल लगभग 400 युवा अपना पूरा समय संघ के माध्यम से राष्ट्र सेवा को समर्पित करते हैं। ये प्रचारक संघ संगठन की बहुत बड़ी ताकत मानी जाती है। आईए! देशभक्ति के इस महाभियान से हम भी जुड़ें। संघ को अखबार, चैनल या नेताओं के द्वारा समझने के बजाये सीधा जुड़ कर स्वयम अनुभव करें । संघ कार्य की गहराई, पवित्रता और राष्ट्र को विश्व गुरु बनाने का जनून और इतना ही नहीं तो इसके लिए निश्चित कार्ययोजना को समीप हो कर देखें ।
  

भारत को संघरूपी कल्पवृक्ष देने वाले अदभुत मनीषी थे डॉ. हेडगेवार -- श्री विजय नड्ढा जी

तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं- इस श्रेष्ठ और उच्च भाव से प्रेरित था संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का जीवन। आध्यात्म और देशभक्ति का सुमेल बैठाने वाले डॉ. हेडगेवार ने स्वामी विवेकानन्द की इच्छा - 'थोड़े समय के लिए सब देवी देवताओं को एक और रख कर भारतमाता को अपना आराध्य बनाने के आह्वान' को साकार कर दिया। डॉ. हेडगेवार का बहुआयामी व्यक्तित्व हिमालय से ऊँचा और समुद्र से गहरा है। उनके 51 वर्ष के छोटे लेकिन अत्यंत सक्रिय जीवन वृत्त को एक लेख में समेटना समुद्र को घड़े में समाने की असफल चेष्टा जैसा ही है। इस लेख में उनके प्रेरक जीवन की मात्र एक झलक ही मिल जाये तो काफी है। 
ऋषि परम्परा के वाहक डॉ. हेडगेवार-  
    
समाजरुपी कबूतर को बचाने के लिए राजा शिवि की तरह कबूतर के बजन के समान अपना मांस देने तथा वृत्रासुर के आतंक से मुक्त कराने के लिए देवताओं के आग्रह पर बज्रास्त्र बनाने के लिए अपनी हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि की परम्परा के आधुनिक प्रतीक थे डॉ. हेडगेवार। जब देश को स्वंतत्र कराने के लिए युवकों में अंग्रेज की गोली खाने या फांसी चढ़ जाने का वातावरण गर्म था, क्रन्तिकारी अपनी जवानी को राष्ट्रदेव के चरणों में चढ़ाने को ललायत थे, अधिकांश कांग्रेस के नेता जेल जाने को ही देश भक्ति मानते थे। ऐसे समय में इस महापुरुष ने सिंहनाद किया कि अवश्यकता पड़ने पर देश के लिए मर मिटना, जेल जाना जरूरी है लेकिन उससे भी बड़ी देशसेवा देश के लिए जीना और जेल से बाहर रह कर अंग्रेज के विरुद्ध समाज को लामबंद करना है। उन्होंने अपनी सोच और व्यवहार में राष्ट्र को वरीयता देने वाले संस्कारित युवकों को तैयार कर उन्हें संगठन की माला में पिरो देने का असंभव कार्य करके दिखा दिया। असंभव इसलिए क्योंकि उस समय जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन को अपना जीवन कार्य बनाया उस समय सामान्य धारणा थी कि चार हिन्दू कभी एक साथ, एक दिशा में नहीं चल सकते जब तक पांचवां उनके कन्धे पर न हो। इसी समय 1909 में बंगाल के यू. एन. मुखर्जी ने हिन्दू जाति के लिए डाईंग रेस का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ऐसे विपरीत समय में जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन की घोषणा की तो सब हैरान रह गए। डॉ. हेडगेवार की कार्यशैली और स्वयं को प्रचार- प्रसिद्धि से दूर रखने की प्रकृति का ही परिणाम है कि आज संघ की चर्चा सर्वदूर है लेकिन संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार को बहुत कम लोग जानते हैं। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को एक कुशल संगठक, मौलिक चिंतक और शून्य से सृष्टि रचने वाले अद्भुत जीवट के धनी तथा भारत को हिन्दू संगठनरूपी कल्पवृक्ष की भेंट देने वाले मनीषी के रूप में जानेंगीं। संघ को समझने के लिए डॉ. हेडगेवार के जीवन को समझना अत्यंत आवशयक है। आईये! उस महा पुरुष के जीवन और दर्शन को समझने का प्रयास करें।
जन्मजात देशभक्त थे डॉ. हेडगेवार- 
अप्रैल एक 1889, हिन्दू नववर्ष अर्थात वर्ष प्रतिपदा के ऐतिहासिक दिन पर एक अत्यंत सामान्य कर्मकांडी ब्राह्मण पिता बलिराम हेडगेवार तथा माता रेवती की कोख से बालक केशव ने जन्म लिया। तीन भाई तथा चार बहनों का बड़ा परिवार भयंकर गरीबी से जूझ रहा था। आय का मात्र माध्यम पुरोहित्य कर्म था। सरस्वती की आराधना के सिवाए और कोई भी कार्य घर में नहीं होता था। बालक केशव बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, स्वाभिमानी तथा जिद्दी था। जिस उम्र में बच्चे मिठाई के लड़ते है, जिद्द करते हैं उसी उम्र में बालक केशव ने महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के 60 साल पूरे होने पर 22 जून 1897 को स्कूल में बांटी जाने वाले लड्डू को कूड़े के ढेर में फैंक दिया। एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण पर आतिशबाजी देखने नहीं गए। सनकी अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सलाम करने से यह कह कर मना कर दिया कि इज्जत मांगी नहीं अर्जित की जाती है।' Respect is commanded not demanded.
स्वंतन्त्रता सेनानी डॉ साहिब-
बालक केशव ने दशवीं कक्षा में 1907 में नील सिटी हाई स्कूल में वन्देमातरम का जय घोष कर सबसे पहले अंग्रेज सत्ता को सार्बजनिक चुनोति दी। आगे मेडिकल की पढ़ाई के लिए कलकत्ता का च्ययन भी विचारित था। कलकत्ता उन दिनों क्रांतिकारियों की काशी माना जाता था। कलकत्ता के ये साल आज के युवा के लिए अत्यंत प्रेरक हैं। केशव का आर्थिक कठिनाई के चलते दोस्तों के साथ कमरे में रहना, रात को सो जाने पर उनकी किताबें पढ़ना, क्रांतिकारियों के कार्य को आगे बढ़ाना तथा कालेज एवं समाज सेवा की अनेक गतिविधियों में पूरी सक्रियता लेकिन इससे भी बड़ी बात ये सब करते हुए पढ़ाई में आगे रहना बड़ी विशेषता दिखती है। केशव के ऊँचे ठहाकों में गरीबी का दर्द बेचारा नजरें छुपाता फिरता था। केशव की जोश में होश बनाये रखना, साहस व् सूझबूझ तथा पैनी दृष्टि साथियों को हैरान कर देती थी। अंग्रेज पुलिस के सीआईडी के लोगों की सीआईडी केशव करता था। मुहल्ले में विद्यार्थियों के कमरे पर पड़ने वाले पत्थरों को इन्होंने अपनी विशेष शैली से रोक लिया। इन्होंने मुहल्ले वालों को कहा कि अगर हमारे कमरे में पत्थर आने नहीं रुके तो सड़क पर जो भी व्यक्ति मिलेगा मैं उसकी पिटाई करूँगा। आश्चर्य कि अगले दिन से पत्थर पड़ने बन्द हो गए। कालेज के अंतिम दिनों में प्रिंसिपल के ब्रह्म देश में आकर्षक नोकरी के प्रस्ताव को यह कह कर विनम्रतापूर्वक ठुकरा देना कि जब तक मेरा देश गुलाम है मैं अपने लिए कोई भी काम नहीं करूँगा वास्तव में उनकी देश के प्रति श्रद्धा और समर्पण की भावना को दर्शाता है। देश की आजादी के प्रत्येक कार्य में डॉ. साहिब आगे रहते थे। वे कांग्रेस और क्रांतिकारियों में प्रथम विश्व युद्ध के समय 1857 एक बार फिर दोहराने के लिए इन्होंने पूरे देश में शस्त्रों का जाल बिछा दिया। लेकिन इनकी पारखी नजरों ने कमजोर कड़ियों को तुरन्त भांप लिया और बिना देर किए निष्काम कर्मयोगी की तरह उसी उत्साह, परिश्रम और सावधानी से किसी को कानों कान खबर लगे बगैर सब कुछ समेट भी लिया। यद्यपि डॉ साहिब तिलक के अनुयायी होने के कारण गर्म दलीय थे तो भी कांग्रेस तथा क्रांतिकारियों में डॉ. साहिब समान रूप से सम्मान प्राप्त थे। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से पूरी तरह असहमत होते हुए भी कांग्रेस के आह्वान पर असहयोग आंदोलन और जंगल सत्याग्रह में दो बार जेल यात्रा कर चुके थे। डॉ. साहिब 1920 में लोकमान्य तिलक के देहांत से उत्प्न रिक्तता की पूर्ति के लिए कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए दुनिया से विरक्ति ले चुके महृषि अरविन्द को मनाने पांडिचेरी गए। 
चिंतक हेडगेवार-
डॉ केशव अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर 1914 में नागपुर आ गए। नागपुर आते ही समाज जागरण के अनेक कार्यों में डट गए। नोकरी, व्यवसाय और शादी के सभी प्रस्तावों को स्पष्टरूप से नकार दिया। दिन रात एक ही धुन अर्थात देश की आजादी। सब कुछ करते हुए समाज की नब्ज टटोलने का भी प्रयास करते रहे। महान संस्कृति, इतिहास और महापुरुषों की अखण्ड श्रृंखला वाला यह देश आखिर बार बार गुलाम क्यों हो जाता है? गहन अध्ययन, चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर समाज संगठन का अभाव, सर्व सामान्य जन में देशभक्ति की कमी इस सारी दुरावस्था के लिए बड़े कारण ध्यान में आए। और उस समय के बड़े नेताओं महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष वीर सावरकर आदि सबसे चर्चा कर अपना सारा जीवन समाज के संगठन के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया।
साहसी डॉ. हेडगेवार-
देशभक्ति के साथ निडरता इनके रक्त में ही समायी थी। खतरों से खेलने में तो इन्हें जैसे आनन्द ही आता हो। एक बार डॉ. साहिब गाड़ी में कहीं जा रहे थे। गाड़ी में पैर तक रखने की जगह नहीं थी। एक डिब्बा जो अंग्रेजों के लिए आरक्षित था एकदम खाली था। डॉ. साहिब से यह अन्याय शन नहीं हुआ। उन्होंने जैसे कैसे अंदर जा कर उसके दरबाजे खोल कर जनता को ऊंचीं आवाज में अंदर आने को कहा। देखते ही देखते सारा डिब्बा भर गया। अंग्रेज निरीक्षक गुस्से से उबल पड़ा और जोर से लोगों को बाहर जाने के लिए कहा। उसने बाहर न जाने पर डंडे से पीटने की धमकी दी। लोग घबरा कर बाहर जाने लगे तो डॉ. साहिब ने और भी ऊँची आवाज में कहा कि अगर कोई भी बाहर गया तो उसे मैं पिटूँगा। सब शांत हो कर बैठ गए। डिब्बा खाली करने में असफल रहा अंग्रेज इंस्पेक्टर पैर पटकता हुआ चला गया। इसी प्रकार कालेज के दिनों में इसी साहस व् सूझबूझ से मुहल्ले के शरारती लोगों द्वारा इनके कमरे में फैंके जाने वाले पत्थर रुकवाये थे।  
संगठक हेडगेवार-
डॉ. साहिब की सङ्गठन कुशलता अदभुत थी। ये स्वयं 'क्रिया सिद्धि सत्त्वे भवति महतां नो उपकरणे' अर्थात महान लोग साधनों के बिना केवल अपने सत्व के बल पर लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं की साक्षात् मूर्ति थे। खुले मैदान में कुछ बच्चों व्  युवकों को खेल, गीत आदि साधारण से कार्यक्रमों के द्वारा विश्व का सबसे बड़ा सन्गठन खड़ा कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है। और सन्गठन भी ऐसा जहां व्यक्ति लेने के नहीं बल्कि देने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करता है। अपनी जयजयकार नहीं बल्कि देश की जय जयकार की इच्छा रखता है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने देश के लिए कल्पवृक्ष की तरह बन गया है। देशप्रेमियों की उम्मीदों तथा देशविरोधियों के लिए भय का केंद्र है यह संगठन। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को कुशल सन्गठन करता के रूप में जानेंगी।

युवा आदर्श शहीद भगत सिंह -- श्री विजय नड्ढा जी

हजारों साल कुदरत अपनी बेनूरी पर रोती है।
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।। 
यह कहावत दुनिया के बाकी देशों के लिए ठीक बैठती होगी। लेकिन हमारी प्रिय भारत भूमि को यह वरदान प्राप्त है कि समय- समय पर एक से बढ़ कर एक महापुरुषों ने यहाँ जन्म लिया। यही कारण हैं कि जितनी दुनिया के देशों की कुल आयु नहीं है उससे कहीं अधिक कालखंड हमारा विदेशी हमलावरों से दो-दो हाथ करने का कालखंड है। लगभग एक हजार साल तक इस्लामिक हमलावरों से कड़े संघर्ष के बाद हमारे जुझारू पुर्बजों ने देश को मुक्त कराया ही था, अभी ठीक से साँस भी नहीं ले पाए थे कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली, धूर्त अंग्रेज आ टपका। थोड़ी देर भले ही हमे अंग्रेज को समझने में लग गयी लेकिन हमने फिर से नये जोश के साथ जिसके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था उस अंहकारी और शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता को भी घुटने टेकने को बिवश कर दिया। भारत का स्वंतत्रता संग्राम अद्भुत है। हमारे एक-एक वीर सपूत की संघर्ष गाथा रोंगटे खड़े कर देने वाली है। शहीद भगत सिंह राम प्रसाद विस्मिल, लाला हरदयाल, अरविन्द घोष व्  वीर सावरकर की परम्परा में थे जो केवल बंदूक की भाषा के लिए ही बल्कि अपने गम्भीर चिन्तन व् लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। आईये! अपने साहस, शौर्य और सूझबूुझ के चलते सम्पूर्ण ब्रिटिश सम्राज्य को हिला देने वाले शहीद भगत सिंह के जीवन के कुछ प्रमुख प्रेरक प्रसंग उनके जन्मदिवस पर याद करने का प्रयास करें।
देशभक्ति और सांस्कृतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि- लायलपुर जिले (पाकिस्तान)  में चक बंगा नाम के गाँव में सरदार किशन सिंह व् विद्यावती के घर सितम्बर 28, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ। ये परिवार में तीसरे पुत्र थे। उनके जन्म के समय ही पिता किशन सिंह और चाचा अजित सिंह जेल से रिहा किये गये थे। जन्म के साथ ही अपने परिवार के लिए खुशी लाने के कारण उन्हें भागों वाला भी कहा जाता था। सम्पूर्ण परिवार ही पूरी तरह देशभक्ति के रंग में रंगा था। चाचा स्वर्ण जीत सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध जलूस निकालने के कारण डेढ़ साल की कैद हुई थी। जेल में ही उन्हें तपेदिक रोग हो जाने से उनकी मृत्यु हो गयी।  इनके दादा अर्जुन सिंह पक्के आर्य समाजी थे। परिवार पर आर्य समाज के प्रभाव के कारण घर में हवन आदि आम होते रहते थे। यहाँ क्रन्तिकारी यशपाल का संस्मरण प्रासंगिक है- सरदार किशन सिंह ने बीमे की एजेंसी ले रखी थी। उसके दफ्तर में अक्सर युवक आ कर बैठा करते थे। एक दिन यशपाल मेज पर बैठ कर कुछ लिख रहे थे। मेज के नीचे टीन की कोई वस्तु थी। अनजाने में उनके पैर उससे टकरा रहे थे। तभी एक बजुर्ग वहां आए और कुर्सी पर बैठ गये। यशपाल उनके आने से बेखबर, लिख़ने में व्यस्त टीन की वस्तु से पैर टकराये जा रहे थे।   सहसा गालिओं की जोरदार बरसात से यशपाल का ध्यान गलती की ओर गया। वास्तव मेज के नीचे टीन की वस्तु हवन कुंड था।
संस्कृत से प्यार-
भगत सिंह की ख्याति एक अच्छे विद्यार्थी की थी। डी ए वी स्कुल लाहौर में पढ़ते समय अपने परीक्षा परिणामों के सम्बद्ध में दादा जी को पत्र लिखा। ॐ से प्रारम्भ करके वो लिखते हैं कि संस्कृत में मेरे 150 से 110 अंक आये हैं। अंग्रेजी में 150 में से 68 अंक आए हैं"। 
स्वाधीनता रक्त बहाए बिना नहीं मिलेगी-
जलियांवाला बाग नरसंहार से क्षुब्ध किशोर भगत सिंह ने अंग्रेजों को भारत से उठा बहार फैंकने का संकल्प ले लिया था। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में सारा देश उदेलित हो रहा था। भगत सिंह ने आन्दोलन में भाग लेने के लिए 9 वीं कक्षा में स्कूल छोड़ दिया। वे जलूस निकालते और विदेशी वस्तुओं की होली जलाते। अभी वो कुछ अधिक कर पाते कि चौरा-चोरी घटना के कारण गाँधी जी ने आन्दोलन वापिस ले लिया। भगत सिंह के किशोर मन में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उनको लगा कि गाँधी जी के लिए स्वाधीनता से ज्यादा महत्व अहिंसा का है। कुछ सिपाही उतेजित जनता के हाथों मर गये तो क्या भारत की आजादी का आन्दोलन बंद कर देना चाहिए? इतने विराट देश की मुक्ति के लिए क्या रक्तपात नहीं होगा? भगत सिंह के मन में देश की आजादी के लिए किसी भी कीमत पर चाहे वह अहिंसा ही क्यूँ न हो अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प और दृढ हो गया। 
क्रन्तिकारी-कठोर जीवन के व्रती-
जिनके कारनामों से अंग्रेज सरकार भी कांपती  थी, उनके पास खाने को रोटी तक नहीं होती थी। क्रन्तिकारी भगवान दास महौर ने लिखा है- सवेरे आजाद ने खाने के लिए कुछ रोटियां और गुड मंगवाया। आजाद केवल गुड और रोटियां खाएं यह बात भगत सिंह को चुभ रही थी। अतएव उन्होंने गुड में से एक डली उठा ली और हमें भी एक एक डली उठाने का इशारा किया। आजाद ने कहा - देखो! परेशान मत करो और भी बहुत काम करने हैं। मैं जो कुछ खाता हूँ जैसे खाता हूँ मुझे खाने दो। भगत सिंह नहीं माने। आजाद ने झुंझला कर सारा गुड फैंक दिया। साथियों ने मुश्किल से मनाया। आजाद फिर से खाने बैठ गये। भगत सिंह ने मुस्कराते हुए कहा कि अगर जिद ही है तो गुड धो तो लो जनाब! गुड धोया गया और आजाद सबके साथ रोटियां खाने बैठ गये।
साहिब, मेम और नौकर-
अंग्रेज अफसर सांडर्स को मार कर भागना कोई आसन काम नहीं था। भगत सिंह को लाहौर से निकालने के लिए एक अभिनव योजना बनाई गयी। भगत सिंह सिख थे। अंग्रेज पुलिस रेलवे स्टेसन पर सिख युवक की तलाश में थी। सब तरफ कड़ा पहरा था। इतने में हैट लगाये अंग्रेज अफसर, कंधे पर छोटा बालक और एक सुंदर मेम आए। उनके पीछे बिस्तर उठाये एक नौकर भी था। वे प्रथम श्रेणी के रिजर्व सीट से कलकत्ता जा रहे थे। कौन थे ये साहिब? साहिब थे अपने भगत सिंह, नौकर राजगुरु और मेम दुर्गा भाभी! सारी सुरक्षा व्यवस्था को चकमा देकर ये सुरक्षित कलकत्ता पहुँच गये। अपने को चतुर समझने वाली ब्रिटिश सत्ता हाथ मलते रह गयी। 
बम कैसे बनाया जाता है?
भगत सिंह अदालत में सजग और चौकन्ने थे। सरकार ने सरकारी गवाहों को क्रांतिकारियों का रह्श्य जान कर उन्हें अराजक तत्व सिद्ध करने के लिए तैयार किया था। भगत सिंह और उनके साथियों ने इस प्रकार जिरह की कि जनता उनका असली स्वरूप जान सके। इसके साथ ही नये क्रांतिकारियों को तैयार करना भी उनका लक्ष्य रहता था। सरकारी गवाह बने फणीन्द्र नाथ घोष गवाही देंने आए तो क्रन्तिकारी शिव वर्मा ने पूछा कि अगर तुम सच में हमारे साथ मिल कर बम बनाते थे तो बताओ बम कैसे बनाया जाता था? इस प्रकार उन्हें बिबश कर दिया कि बम बनाने की पूरी बिधि बताएं। यह सारी रिपोर्ट अख़बार में छपी और सारा देश जन गया कि बम कैसे बनाया जाता है। 
अदालत में भी मस्ती
अदालत में दोपहर के खाने के समय क्रांतिकारियों से मिलने की अनुमति थी। श्रीमती सुभद्रा जोशी अपने संस्मरणों में लिखती है- उस समय खाने पीने का सामान देने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था परन्तु नियम था कि सारा सामान वहीँ खाना होता था। मैं प्रतिदिन एक दो चीजें ले जाती थी जो जेल में नहीं मिलती थी और जिन्हें सरदार भगत सिंह और उनके साथी बहुत पसंद करते थे। दहीं-बड़े सब बहुत पसंद करते थे। भगत सिंह केक बहुत चाव से खाते थे। एकदिन उन्होंने मुझे केक खिलाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसमे अंडा होने के कारण मैं नहीं खा सकी। दोपहर के खाने का यह डेढ़ दो घंटे का समय हंसी और दिल्लगी में बीत जाता था। मृत्यु जिनके सर पर मंडरा रही हो उन नो जवानों की जिन्दा दिली देखते ही बनती थी। 
बेबे तू रोना नही-
मार्च 3 1931 को भगत सिंह अंतिम बार अपने परिवार से मिले। माता-पिता, दादा जी, चाची जी और भाई सभी तो थे सामने। पर सबसे आकुल व् अधीर थे सदा अर्जुन सिंह। उन्होंने ही तो इस कुल में क्रांति की ज्योति जलाई थी। वे भगत सिंह के पास गये कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सके। लेकिन भगत सिंह एकदम सामान्य हो कर हंस हंस कर सबसे बातें कर रहे थे। अपनी माता जी से बोले- बेबे जी, दादा जी अब ज्यादा दिन जियेंगे नहीं। आप इनके पास ही रहना। यह भी कहा कि लाश लेने आप मत आना। कुलवीर को भेज देना। कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे की भगत सिंह की माँ रो रही है। 
हम तो सफर करते हैं-
भगत सिंह ने अंतिम बार अपनी कोठरी की ओर निहारा। तभी आ गये दोनो जीवन साथी राजगुरु और सुखदेव। तीनों की दृष्टि मिली,तीनों गले मिले। भगत सिंह ने गाना शुरू किया - दिल से न निकलेगी वतन की उल्फत, मेरी मिटटी से खुशबुए वतन आयेगी। फांसी तलघर के समीप  गोरा डिप्टी कमिश्नर खड़ा था इन आजादी के दीवानों की दीवानगी देख कर परेशान था। भगत सिंह उससे बड़े स्नेह से अंग्रेजी में बोले- ' well Mr Magistrate you arw fortunate to see how Indian revolutionaries can embras death with pleasure for the sake of their suprem ideal.
भगत सिंह के जीवन के सैकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं जो आज के युवा को उद्येलित कर सकते हैं। आवश्यकता है इन भारत माता के वीर सपूतों का जीवन नई पीढ़ी के सामने लाया जाये। नशे और राग रंग में रंगी पंजाब की जवानी को अपने देशभक्त क्रांतिकारियों का जीवन दिशा दे सकता है। 

मां और बेटे के बीच कांग्रेस -- चन्द्रमोहन जी

सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के 100 सांसदों ने संसद भवन से लेकर राष्ट्ररपति भवन तक एक किलोमीटर मार्च कर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ ज्ञापन सौंपा। पहली बार इस तरह 10 जनपथ की ऊंची दीवारों से बाहर आकर सोनिया गांधी ने सड़क पर प्रदर्शन किया है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण आडवाणी सब ऐसा कर चुके हैं लेकिन सोनिया गांधी की ऐसी सक्रियता देश ने पहली बार देखी है। वह अदालत द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को समन दिए जाने के बाद भी कांग्रेस के नेताओं के साथ मनमोहन सिंह के घर तक मार्च कर चुकी हैं। इस बार उन्हें अधिक समर्थन मिला क्योंकि तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू) तथा इनैलो जैसी कांग्रेस विरोधी पार्टियों के सांसद भी उनके पीछे चल रहे थे। सोनिया ने भी 'सभी प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा भविष्योन्मुखी ताकतों' की बात कर भाजपा तथा मोदी विरोध को सैद्धांतिक बनाने का प्रयास किया है। वह सीधे तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर निशाना साध रही हैं और बताना चाहती हैं कि वही नरेन्द्र मोदी का सामना कर सकती हैं तथा पार्टी का नियंत्रण उन्होंने फिर संभाल लिया है। इस मामले में केन्द्रीय सरकार तथा भाजपा की असफलता है। भूमि अधिग्रहण के मामले में न वह देश को साथ लेकर चलने में सफल रहे हैं, न ही वह विपक्ष को बांट सके हैं। सोनिया खुद को किसानों का शुभचिंतक बताने के लिए उन प्रदेशों का दौरा भी कर रही हैं जहां वर्षा के कारण फसल तबाह हुई है। यूपीए बनाने के समय भी उन्होंने यह योग्यता दिखाई थी जब वह पहली बार खुद चल कर रामबिलास पासवान के घर गई थीं और उन्हें शामिल किया था। सोनिया समझती हैं कि भाजपा बैकफुट पर है और 'आपÓ उलझी हुई है लेकिन जैसे कहा गया है कि राजनीति में एक सप्ताह बहुत लम्बा समय है। शुक्रवार को ही कोयला तथा खनिज बिल पारित कर सरकार ने पासा पलट दिया। सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल सब सरकार के साथ खड़े थे। इन प्रदेशों को अब राजस्व का अधिक हिस्सा मिलेगा इसलिए वह कांग्रेस का साथ छोड़ गए हैं। सोनिया गांधी का नेतृत्व का प्रयास बीच लटकता रह गया है। हां, भूमि अधिग्रहण बिल जरूर एक बारूदी सुरंग की तरह है। सरकार का चेहरा झुलस सकता है।
पर सोनिया गांधी की सबसे बड़ी असफलता उनके अपने घर में है। मामला उनके पुत्र राहुल से जुड़ा हुआ है जो अपनी सारी जिम्मेवारी को एक तरफ फेंक कर पांच सप्ताह से गायब हैं। शायद मानना है कि राजनीति सचमुच 'ज़हर' है। मुझे तो ऐसा भी प्रभाव मिलता है कि जैसे उन्हें राजनीति में दिलचस्पी नहीं और मां जबरदस्ती उन्हें उधर धकेल रही हैं। यह भी आभास मिलता है कि राजनीति उन्हें जो विशेषाधिकार देती है उसको तो वह संभालना चाहते हैं लेकिन मेहनत कर उसकी कीमत नहीं चुकाना चाहते। राजनीति में वह उस तरह सुखद नज़र नहीं आते जैसे उनकी माता नज़र आती हैं। जो काम उनके पुत्र को करना चाहिए था सोनिया खुद कर रही हैं। वह यह संदेश भी दे रही हैं कि पुत्र की राजनीतिक कायरता के बावजूद कांग्रेस के शिखर पर 'नो वकेंसी' है, जगह खाली नहीं। पार्टी के महत्वाकांक्षी नेता शांत हो जाएं। लगता है कि सोनिया गांधी को भी पुत्र में अधिक विश्वास नहीं इसलिए उसे पूरी जिम्मेवारी सौंपी नहीं जा रही। दिलचस्प है कि कांग्रेस पार्टी में भी कोई राहुल की अनुपस्थिति महसूस नहीं कर रहा।
वैसे तो कांग्रेस राबर्ट वाड्रा का भी बचाव कर चुकी है जो जरूरी नहीं था क्योंकि कांग्रेस खुद मानती है कि उनके कारनामे 'व्यक्तिगत' हैं पर अब कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी की कथित जासूसी को लेकर अपना लतीफा बना लिया है। अगर सरकार ने जासूसी करनी है तो राहुल के घर परफार्मा लेकर एएसआई को भेजने की जरूरत नहीं आजकल तो जासूसी करने के बड़े आधुनिक तरीके हैं। हमने बीजिंग में परवेज मुशर्रफ तथा रावलपिंडी में बैठे उनके जनरल के बीच टेलीफोन वार्ता टेप कर ली थी। यूपीए के समय इस बात को लेकर खलबली मच गई थी कि वित्तमंत्री के दफ्तर में 'बग' अर्थात् खुफिया यंत्र लगा है। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह नियमित तौर पर अपने मेहमानों को बातचीत के लिए भवन से बाहर बाग में ले जाते थे क्योंकि उन्हें आशंका थी कि उनके वार्तालाप सुने जाते हैं। और जिस प्रकार की जानकारी राहुल के बारे प्राप्त करने की कोशिश की गई वह तो 'खुफिया' कही ही नहीं जा सकती। उनकी आंखों का रंग, कद काठ, जूतों का साइज क्या है यह सामान्य जानकारी है। सरकार ने बताया कि 1957 से दिल्ली पुलिस ऐसी प्रक्रिया अपना रही है जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, प्रणब मुखर्जी, सोनिया गांधी समेत 526 महत्वपूर्ण लोगों के बारे जानकारी इकट्ठी की गई लेकिन क्योंकि राहुल के घर एएसआई पहुंचा इसलिए कांग्रेस भड़क गई और बात का बतंगड़ बना दिया। यह कैसी पार्टी है जिसे हर सही-गलत, महत्वपूर्ण-महत्वहीन मामले में एक परिवार का बचाव करना पड़ता है? कांग्रेस की यह बेचारगी है जो उसके पतन का कारण बनी है। उनकी त्रासदी यह भी है कि जिसे वह दुल्हा बनाना चाहते हैं वह ही घोड़ी पर चढऩे को तैयार नहीं।
----चन्द्रमोहन जी

(लेखक दैनिक वीर प्रताप, समाचार पत्र के संपादक है)

वो आइना खुद को भी कभी दिखाओ -- चन्द्रमोहन जी


जिस वक्त देश में यह जबरदस्त बहस चल रही थी कि निर्भया बलात्कार पर आधारित बीबीसी वृत्तचित्र 'इंडियाज़ डॉटर' दिखाई जाए या न दिखाई जाए, लुधियाना के एक होटल में काम करने वाली लड़की जो देर रात काम के बाद घर लौट रही थी, के साथ गैंगरेप हो गया। अपने साथ रेप के बाद उस लड़की ने जो कहा वह उल्लेखनीय है, 'मैंने चूड़ीदार कुर्ता डाला हुआ था। मेरा कोई ब्वाय फ्रैंड नहीं है। मेरा कसूर क्या था? कुछ लोग कहते हैं कि जीन्स डालने से रेप हो जाता है। कुछ महिला के चरित्र को जिम्मेवार ठहराते हैं। मैं किसे दोषी ठहराऊं?' अपराधी मुकेश सिंह, हिन्दू महासभा तथा कई और समाज के ठेकेदार भी मानते हैं कि महिला का आधुनिक पश्चिमी लिबास रेप को आमंत्रित करता है लेकिन लुधियाना की यह मासूम तो चूड़ीदार कुर्ता में थी फिर उससे बलात्कार क्यों हुआ? हमने नगालैंड के दीमापुर में अलग घटना देखी जहां रेप की घटना से आक्रोषित भीड़ ने केन्द्रीय जेल पर धावा बोल कर आरोपी को बाहर निकाल पीट-पीट कर मार डाला। नगालैंड में बलात्कार की दर सबसे कम है पर इस तरह भीड़ की हरकत अलग कहानी बताती है कि लोग धीमे कानून से तंग आकर कानून खुद हाथ में लेने लगे हैं लेकिन अगर ऐसा सब करने लग पड़े तो अराजक स्थिति पैदा हो जाएगी। फिर तो माओवादी भी कहेंगे कि उनकी हिंसा भी जायज़ है।
दुनिया भर में बलात्कार होते हैं लेकिन आजकल हमारी बदनामी अधिक है जिस कारण एक भारतीय पुरुष को जर्मनी में इंटरनशिप से इसलिए इन्कार कर दिया गया क्योंकि भारत में 'रेप समस्या' है। बाद में जरूर इस जर्मन महिला प्रोफैसर ने माफी मांग ली लेकिन क्या बलात्कार केवल भारतीय समाज तक ही सीमित है, जर्मनी में बलात्कार नहीं होते? ग्लासगो में चलती बस में बाकी यात्रियों के सामने लड़की से बलात्कार किया गया। लंदन में 9 स्कूली लड़कों ने एक लड़की से सामूहिक बलात्कार किया। कुछ लड़के तो 13 वर्ष के थे। दिल्ली में जिस तरह निर्भया के साथ बलात्कार के बाद उसे यातनाएं दी गईं उसी तरह दक्षिण अफ्रीका में सामूहिक बलात्कार के बाद एक महिला को सड़क पर फेंक दिया। उसकी आंतडिय़ां बाहर निकली हुई थीं। पश्चिम में तो चर्च के अंदर रेप की शिकायतें मिल रही हैं।
निर्भया रेप पर वृत्तचित्र बनाने वाली निर्माता लेसली उडविन का कहना है कि इस पर प्रतिबंध लगा कर भारत ने 'अंतरराष्ट्रीय आत्महत्या' कर ली है पर इस महिला ने यह नहीं बताया कि इसे जारी करते हुए उसने कानून और नियमों का उल्लंघन क्यों किया? ऐसी तथा स्लमडॉग मिलेनियर जैसी फिल्में भारत की बुरी तस्वीर पेश करती हैं जो हकीकत से मेल नहीं खातीं। स्लमडॉग मिलेनियर में चुन चुन कर ऐसे दृश्य डाले गए थे जो केवल इस समाज की गंदी तस्वीर पेश करें। बराक ओबामा ने भी धार्मिक असहिष्णुता पर हमें लताड़ दिया जबकि अमेरिका से रोज़ाना नसली हिंसा तथा नफरत के समाचार मिल रहे हैं। जहां तक बलात्कार का सवाल है संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार जिन देशों में सबसे कम बलात्कार होते हैं भारत उनमें शामिल है। क्योंकि यहां जनसंख्या अधिक है और अंतरराष्ट्रीय दुष्प्रचार मिल रहा है इसलिए बदनामी अधिक हो रही है कि जैसे हर भारतीय मर्द भेडिय़ा है।
जिन देशों में बलात्कार सबसे अधिक होता है उनमें अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, स्वीडन, दक्षिण अफ्रीका, बैल्जियम जैसे विकसित देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्रीय की रिपोर्ट के अनुसार यहां प्रति 1,00,000 जनसंख्या बलात्कार की दर 1.8 है जबकि आस्ट्रेलिया में यह 28.6, ब्रिटेन में 24.1, अमेरिका में 28.6, स्वीडन में 66.5, बैल्जियम में 26.3 तथा दक्षिण अफ्रीका में 114.9 है। फिर भारत बलात्कारी देश कैसे हो गया? ब्रिटेन में बलात्कार की दर हमसे 13 गुणा अधिक है। बीबीसी ने अपने घर में इतनी शोचनीय हालत के बारे वृत्तचित्र क्यों नहीं बनाया? बीबीसी तथा सीएनएन जैसे चैनल हैं जो पश्चिमी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हुए दूसरों को नीचा दिखाते रहते हैं। हमारे बारे पूर्वाग्रह पक्के किए जाते हैं। वह तो हमें एक गरीब, पिछड़ा, अनपढ़, अभद्र देश ही देखना चाहते हैं पर हमें अपने पुराने मालिकों से नसीहत नहीं चाहिए। हमें भी इन्हें शीशा दिखाना चाहिए कि दुष्कर्मी तथा विकृत लोग उनके समाज में भी हैं। सर जेम्स सैविल जिसका जिक्र मीनाक्षी लेखी ने भी एक लेख में किया है, बीबीसी में एक शो होस्ट करता था। उसकी मौत के बाद उसके खिलाफ यौन उत्पीडऩ की कई सौ शिकायतें बाहर आई हैं जिससे पुलिस का मानना है कि यह शख्स धारावाहिक यौन अपराधी था। बीबीसी ने अपने शो होस्ट के बारे अपनी खोजी पत्रकारिता के हुनर का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? अब कहा जाता है कि वह अपने स्टाफ तथा परिचित, जिनकी उम्र 5 वर्ष से 75 वर्ष तक थी, पर यौन हमले करता रहा। इनमें लड़के और लड़कियां बराबर थे लेकिन अभी तक इसका 'सर' का खिताब वापिस नहीं लिया गया। बीबीसी से पूछना है कि अगर उसे बलात्कार की इतनी चिंता है तो वह 'सर' जेम्स सैविल पर 'इंडियाज़ डॉटर' की तरह 'ब्रिटेनज़ फादर' वृत्तचित्र क्यों नहीं बनाती? वहां दक्षिणी यार्कशायर में 1997-2013 के बीच 1400 बच्चों का यौन उत्पीडऩ हुआ था। वहां के पूर्व सांसद डैनिस मैक शेन ने स्वीकार किया है कि वह इस बात के अपराधी हैं कि इसे रोकने के लिए उन्होंने बहुत कम प्रयास किया।
अर्थात् कोई भी समाज नहीं है जो ऐसे भेडिय़ों से अछूता हो केवल हमारा दुष्प्रचार अधिक होता है जिसमें हमारे अंग्रेजी मीडिया का भी एक वर्ग शामिल है जिनके लिए पश्चिम की राय किसी धर्म ग्रंथ के आदेश से कम नहीं। हां, यहां कमजोरियां हैं। समाज का एक वर्ग आधुनिक, आजाद तथा आत्मनिर्भर महिला की अवधारणा को पचा नहीं पा रहा है। और अगर मुकेश सिंह का मामला लम्बित न होता तो वह यह बताने की स्थिति में न होता कि किस तरह उसने उस लड़की की हत्या की थी। 2013 में बलात्कार के मामलों में केवल 27 प्रतिशत को सजा मिली थी लेकिन सजा की दर कई पश्चिमी देशों में इससे भी कम है। अमेरिका में 100 में से केवल 3 को कैद की सजा मिलती है। हमारी सजा की दर ब्रिटेन से अधिक है लेकिन निश्चित तौर पर बहुत सुधार की गुंजाइश है क्योंकि यहां तो पीडि़त महिला थाने में जाने से घबराती है। एनडीटीवी ने लखनऊ की एक महिला से बात की है जिसके साथ बलात्कार तब हुआ था जब वह मात्र 13 वर्ष की थी। अब वह 23 वर्ष की है पर मुकदमा शुरू नहीं हुआ क्योंकि अपराधी की राजनीतिक पहुंच है। अगर इसी तरह बलात्कार के मामले लटकाए जाते रहे तो दीमापुर जैसी और घटनाएं हम रोक नहीं सकेंगे। बीबीसी की चिंता किए बिना हमें अपना सुधार करना है पर हमें बदनाम करने वाले पश्चिमी प्रचार तंत्रों को ज़रूर कहना चाहूंगा,
हर रोज़ मेरे रूबरू करते हो जिसे आप,
वो आइना खुद को भी कभी दिखाओ!

--चन्द्रमोहन जी
(लेखक दैनिक वीर प्रताप, समाचार पत्र के संपादक है)

सच्चाई से कोसों दूर है वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रिबेरियो की बेचैनी-- श्री विजय नड्ढा जी

पंजाब के पूर्व पुलिस प्रमुख 86 वर्षीय श्री रॉबर्ट रिबरियो की खीज, घबराहट और निराशाभरे वक्तव्य की ओर देश का ध्यान जाना स्वाभाविक है। लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी, प्रधानमन्त्री श्री मोदी और हिन्दुत्व को कठघरे में खड़ा करने का जो प्रयास किया है उससे उनकी अपनी छवि को धक्का जरूर लगा है। पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध लोहा लेकर देशवासियों की जो श्रद्धा और सम्मान रिबेरियो के प्रति है ऐसे बयानों से मिटटी होता जाएगा। लोगों के मन में प्रश्न आ रहा है कि क्या आतंकवाद के समय पुलिस का नेतृत्व कर  उन्होंने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया था या  कोई एहसान किया था? उन्हें याद होगा कि पंजाब में आतन्कवाद के विरुद्ध लोहा पुलिस अधिकारी रिबेरियो ने लिया था न कि ईसाई प्रचारक रिबेरियो ने। और देश की श्रद्धा भी पुलिस अधिकारी रिबेरियो के प्रति है ईसाई रिबेरियो के प्रति नहीं। भारत में सेना और पुलिस में जाति, धर्म नहीं बल्कि व्यक्ति की देशभक्ति और कर्मठता ही सोचने और व्यवहार करने का प्रमुख आधार होता है। आश्चर्य है कि पुलिस अधिकारी रिबेरियो के ऊपर इस उम्र में ईसाई रिबेरियो कैसे हावी हो गया?
काल्पनिक सवाल और आशंकाएं-
रॉबर्ट रिबेरियो द्वारा उठाए गए काल्पनिक सवालों और आशंकाओं से वे पुलिस अधिकारी से ज्यादा ईसाई मिशनरी अधिक लग रहे हैं। क्या इस पुलिस अधिकारी पर उम्र हावी हो रही है? बुढ़ापे में धार्मिक होना, अपने धर्म के प्रति ज्यादा  निष्ठावान होना अच्छी बात है लेकिन सच्चाई का दामन छोड़ देना तो ठीक नहीं। क्या ईसाई मिशनरी और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां उभरते भारत के विजय रथ को रोकने के लिए, दुनिया में सरकार और देश की छबि खराब करने के लिए इस पुलिस अधिकारी को प्रयोग करने में सफल हो गयी हैं? रिबेरियो का यह कहना कि मैं अब भारतीय नहीं रह गया हूँ कम से कम उन लोगों के लिए तो कदापि नहीं, जो हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर  हैं...प्रश्न उठ रहा है कि रिबेरियो साहिब को अपने बारे अचानक यह आशंका क्यों हो रही है? क्या किसी ने रिबेरियो को कुछ कहा है? अगर ये महाशय देश में ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध दिख रहे गुस्से को अपना व्यक्तिगत विरोध मान रहे हों तो इन्हें स्वामी विवेकानन्द ने ईसाई मिशनरियों के सम्बद्ध में जो कहा था, उसे याद करना ठीक होगा- हिन्द महासागर में जितना कीचड़ है अगर सारे भारतवासी मिलकर उस कीचड़ को ईसाईयों पर फैंकने लगें तो भी यह उस अन्याय जो ईसाईयों ने भारत के साथ किया है, का शतांश भी बदला नहीं होगा। जहां तक हिन्दू राष्ट्र की बात है तो रिबेरियो साहिब जरूर जानते होंगे कि भारत ही है जहां ईसाई और इस्लाम ही नहीं तो पारसी जैसे नगण्य समाज भी पूरा मान-सम्मान और सुविधाएँ प्राप्त कर रहे हैं, इतना ही नहीं तो बहुसंख्यक समाज से कहीं ज्यादा तो यह हिन्दू भाव के कारण ही है। नहीं तो पाक, बंग्लादेश और अरब देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है, सारी दुनिया जानती ही है। इसलिए किसी को हिन्दू राष्ट्र से एलर्जी का कोई कारण नहीं होना चाहिए। रिबेरियो साहिब, भारत के बड़े दिल का और क्या प्रमाण चाहते हैं कि ईसाई, मुसलमानों का अत्याचार भरा अतीत आदि सब कुछ भूल कर भारत फिर भी ईसाई और मुसलमानों को गले से लगा रहा है। फिर भी ईसाई और मुसलमान अगर भारत में खुश नहीं तो किसी ने ठीक ही कहा है-
हम बाबफा थे इसलिए गिर गए तुम्हारी निगाहों से
तुम्हे शायद किसी बेबफा की तलाश थी।।
बड़पन्न भारत का या ईसाई मुसलमानों का
रिबेरियो लिखते हैं कि पुलिस प्रमुख, सेना अध्यक्ष और वायुसेना प्रमुख आदि ईसाई रह चुके हैं। तब किसी ने उनकी निष्ठा को लेकर सवाल नहीं उठाये और अब....! महोदय, सवाल तो अब भी कोई नहीं उठा रहा है। ऐसे प्रश्न खड़े कर, सेना और पुलिस अधिकारीयों को धर्म के तराजू में खड़े कर सवालों को जन्म तो आप खुद दे रहे हैं। अगर आपकी नहर से देखें तो ईसाई या मुसलमानों के कड़वे अतीत के बाबजूद इतने बड़े पदों के लिए देश आप पर भरोसा करता है तो इसमें बड़पन्न किसका है? दुनिया में कोई देश बता दो जहां अल्पसंख्यकों को सर्वोच्च पदों पर बिना किसी भेदभाव के बैठाया जाता हो। इतना सब होने पर भी भारत के अहसानमन्द होने के बजाए भारत की मंशा पर सवाल उठाना कौन सी मानसिकता का सूचक है
ईसाई मिशनरियों की मासूमियत के क्या कहनेरिबेरियो कहते हैं कि ईसाई समाज बहुत ही शांतिप्रिय और छोटा समाज है। पुलिस अधिकारी रह चुके रिबेरियो अगर यह कहते हैं तो जरूर दाल में बहुत कुछ काला लगता है। इनको अगर इनकी भाषा में ही समझाने की कोशिश करें तो- न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग अपनी रिपोर्ट में  लिखते हैं- 1982 में तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले में हुए भीषण दंगों के लिए ईसाई पादरियों द्वारा किया जा रहा धर्मान्तरण ही मुख्य कारण है। आयोग ने सुझाव दिया कि मतांतरण को प्रतिबन्धित करने के लिए शीघ्र केंद्रीय कानून बनाया जाए। नागालैंड के राज्यपाल ओ पी शर्मा (4 फरबरी 1994)  Nationalist Socialist Council of Nagaland को world council के 17 चर्चों से धन मिलता है। रिबेरियो साहिब आपने नियोगी कमीशन की केंद्र सरकार को दी सिफारिशें जरूर पढ़ी होंगी। नहीं तो ईसाई मिशनरियों के चेहरे से सेवा और मासूमियत का नकाब उतारने के लिए जरूर पढ़ लें। ईसाई और इस्लाम की शक्तियों को लेकर संघ प्रमुख गोलवलकर, सुदर्शन या भागवत न सही, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद जैसे महापुरुषों ने देश को किन शब्दों में सावधान किया है जरूर याद करना चाहिए। 
आतंकवाद के पीछे चर्च?
पंजाब और पर्वोत्तर भारत में आतँकवाद के पीछे भारत और दुनिया के चर्च सक्रिय रहे हैं और अभी भी हैं, यह पुलिस अधिकारी के रूप में रिबेरियो से ज्यादा कौन जनता है? क्या रिबेरियो साहिब नहीं जानते हैं कि ईसाईयत के प्रचार के नाम पर इस समय भारत में प्रमुख विदेश संस्थाएं सक्रिय हैं? अरबों रूपये विदेशों से इसी काम के लिए आते हैं? अगर नाम ही गिनाने हों तो - बर्ल्ड विजन, वर्ल्ड रीच, यूनिसेफ, केथोलक बिशप कान्फ्रेन्स ऑफ़ इंडिया, इंडिया बाईबल लिटरेचर, हेल्पेज इंडिया क्राई,तथा समाधान आदि आदि। जहां तक इनके भोलेपन का सवाल है तो फ़िल्मी गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं -
भोलापन तेरा खा गया मुझको.... केवल इतिहास का एक उदाहरण ही काफी है-1541में जेवियर नाम के ईसाई विजेता ने लाखों हिंदुओं को बलात् ईसाई बनाया। हिन्दू मन्दिरों को तोड़ कर चर्च बनाए गए। हिन्दू विधि से विवाह, यगोपवीत संस्कार अवैध घोषित कर दिए। सिर पर चोटी, घर के बाहर तुलसी का पौधा पर भारी दण्ड था। इसी समय ईसाई अधिकारियों को हिन्दू महिलाओं से बलात्कार करने का अधिकार प्राप्त था। जिन हिन्दू महिलाओं ने विरोध किया, उन्हें पकड़ कर जेलों में डाल कर अपनी काम वासना पूरी कर हेरेटिक्स अर्थात ईसाई मत के प्रति अविश्वासी घोषित कर जिन्दा जला दिया। (दा गोआ- इन्विजिशन - प्रयोलकर) क्या ये केवल अतीत की बातें हैं? काश! ये सच होता? आज भी देश में ईसाई मिशनरी भोले भाले गरीब हिन्दुओं का किस चालाकी से धर्मान्तरण कर रहे हैं, सारा पूर्वोत्तर ही नहीं तो देश के अनेक राज्यों सहित अब तो पंजाब भी चीख चीख कर अपनी बेदना कहता सुना जा सकता है। भोले-भाले मासूम स्कूली बच्चों के दिल में ईसा की महानता बैठाने के लिए भगवान राम, कृष्ण के नाम से बस को धक्का लगवाना और न चलने पर ईसा का नाम लेकर बस चला देना, भगवान राम, कृष्ण की लोहे की मूर्ति को पानी में डूबने देना और ईसा की लकड़ी की मूर्ति को तेरा कर बच्चों के सामने सिद्ध कर देना कि ईसा ही उन्हें भवसागर में तैरा कर पर लगा सकते हैं। ऐसे और कितने ही चालाकी भरे कृत्य मिशनरी करते हैं कि स्वर्ग में बैठे ईसा भी शरमा रहे होंगे। रिबेरियो साहिब ठीक कहते हैं कि ईसाई लोगों ने शिक्षा, चिकित्सा में बहुत योगदान दिया है यह बात भारत भी स्वीकार करता है, इसके लिए इन्हें धन्यवाद भी देता है, लेकिन इन सेवा संस्थानों और कार्यों की आड़ में कितना धर्मान्तरण हुआ है जब इसका विचार करते हैं तो इन ईसा के दूतों की सज्जनता, भोलेपन और सेवाभाव का सारा नकाब उतर जाता है। क्या रिबेरियो साहिब एक सवाल का जबाब देश को देंगे? देश के उन्हीं हिस्सों में अलगावाद, आतँकवाद, देश के बिरुद्ध गाली-गोली की बात क्यों सुनाई देती हैं जहां ईसाई या मुसलमान अधिक संख्या में होते हैं? जम्मूकश्मीर से लेकर नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, बंगाल आसम और अरुणाचल आदि राज्य इसका सीधा प्रमाण हैं।
संघ को कितना जानते हैं रिबेरियो?
अपनी धुन में रिबेरियो प्रधानमन्त्री श्री मोदी के साथ ही संघ और संघ प्रमुख मोहन भागवत को भी लपेट गए। क्या रिबेरियो संघ को जानते हैं? संघ की देशभक्ति की दाद तो संघ के कट्टर विरोधी भी देते रहे हैं। संघ की देशभक्ति सेना या पुलिस से किसी भी अर्थ में कम नहीं है फर्क केवल इतना है की सेना और पुलिस में सेवा के बदले वेतन मिलता है जबकि संघ में घर फूँक तमाशा देखना होता है। लगता है संघ पर प्रश्न उठा कर उन्होंने अपनी अज्ञानता और खीज का ही परिचय दिया है। उन्होंने मदर टेरसा को लेकर मोहन भागवत के जिस वक्तव्य की बात की है क्या वे जानते हैं कि यह बात मोहान भागवत ने नहीं, बल्कि कार्यक्रम के अध्यक्ष ने कही थी। मोहन भागवत ने तो कहा कि मदर टेरसा क्या थी और उनके उद्देशय क्या थे हम नहीं जानते हम तो केवल अपना बता सकते हैं कि हम गरीबों की शुद्ध सेवा भाव से करते हैं। पुलिस अधिकारी रह चुके रिबेरियो ने भी तथ्यों की जाँच पड़ताल किए बगैर ही संघ के बिरुद्ध मोर्चा खोल दिया तो क्या कहा जा सकता है? हालाँकि मदर टेरसा को लेकर अब कोई भ्रम नहीं रहा है। स्वयं उन्होंने कई जगह अपने सारे सेवा कार्यों के पीछ का उद्देशय शुद्ध धर्म परिवर्तन बताया है। अगर सेवा ही उद्देशय था तो क्या ईसाई देशों में गरीबी, भेदभाव समाप्त हो चुका था जो वह भारत में आ डटी? हम मदर टेरसा की इज्जत करते हैं, जो उन्होंने सेवा कार्य किए उसके लिए हृदय से धन्यवाद भी करते हैं लेकिन इस सबके बाबजूद सच्चाई से पीछे भागना कहां तक ठीक है? रिबेरियो साहिब जरूर जानते होंगे कि अपने सेवा कार्यों और मासूमियत के बल पर ईसाईयत देशों के देश निगल गयी। मात्र 2000 सालों में 100 से ज्यादा देश ईसाई हो चुके हैं। क्या यह केवल ईसाईयत की महानता के कारण हुआ या धोखा, धक्का इसके पीछे का  मूल कारण है? अफ़्रीकी देश केन्या के राष्ट्रपति की बेदना सुनें- जब ईसाई मिशनरी इस देश में आए तो अफ्रीकियों के पास जमीन थी और मिशनरियों के पास बाईबल। उन्होंने हमें आँख बन्द करके प्रार्थना करना सिखाया जब हमने ऑंखें खोली तो देखा कि उनके पास जमीन है और हमारे पास बाईबल! संघ को ईसाईयत या इस्लाम से कोई समस्या नहीं है। देशवासी ईसा और मुहम्मद का सम्मान सब करते हैं। भारत में सबकी पूजा पद्धति, मत मतांतर का सम्मान करने की परम्परा है। गोआ में सबसे पहले आए ईसाई पादरियों और इस्लाम के अनुयायियों को चर्च और मस्जिदें हमने स्वयं बना कर दी हैं। लेकिन देश का युवा जानना चाह रहा है हमे हमारी इस उदारता का क्या सिला मिला? पंजाबी गीत की पंक्तियाँ यहां सटीक बैठती हैं-
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का!
यार ने ही लूट लिया घर यार का!! 
संघ देश को सावधान और यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता रहता है कि ईसाईयत और इस्लाम मजहब के नाते स्वीकार्य स्वीकार्य हैं लेकिन इनकी आड़ में देश विरोधी तत्वों या शक्तियों को पनपने न दें। संघ का कोई अपराध है तो बस इतना ही है। अगर अन्य देशवासियों के साथ-2 ईसाई व् इस्लाम के बन्धुओं से देशभक्ति की अपेक्षा करना अपराध है तो हमारा तो यही कहना है-
वो कौन हैं जिन्हें तौबा को मिल गयी फुर्सत।
हमें तो गुनाह करने को भी जिंदगी कम है।।
अब अपने आप को देशबाह्य शक्तियों से दूर रखना, देश की मिटटी से जुड़े रहना ये जिम्मेदारी ईसाई और इस्लाम नेतृत्व की भी है। किसी को पसन्द आए या नहीं लेकिन भविष्य के भारत में सम्मान और विश्वास प्राप्त करने के लिए यह पूर्व शर्त जरूर है।

समाज मन्थन का कुम्भ है संघ की प्रतिनिधि सभा की बैठक-- श्री विजय नड्ढा


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक इस वर्ष मार्च13 से 15 तक नागपुर में सम्पन्न हुई। संघ की नीति निर्धारक इस सर्वोच्च सभा की बैठक देश विदेश में सबके लिए उत्सुकता का विषय रहती है। संघ का चुनाव वर्ष होने के कारण इस बार यह उत्सुकता और रोमांच थोडा ज्यादा ही दिख रहा था। मीडिया ने तो अपनी सीमा पार करते हुए कल्पना के घोड़े दौड़ाते हुए संघ की नई कार्यकारिणी का गठन भी कर दिया था। लेकिन संघ की कार्यकारिणी को देख कर उन्हें थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। एक हजार से अधिक प्रतिनिधि देश की वर्तमान परिस्थितियों, चुनोतियों, कार्यविस्तार तथा संगठन के अनेक पहलुओं पर विचार विमर्श करने के लिए तीन दिन डटे रहे। इस प्रतिनिधि सभा में संघ के नेतृत्व के अतिरिक्त संघ प्रेरणा से चल रहे संगठनों की अखिल भारतीय टोली इस बैठक में रहती है।
संविधान का अक्षरशः पालन होता है संघ में-
          
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आप में अदभुत संगठन है। वर्तमान में राजनैतिक दलों में सांगठनिक चुनावों में मचती भागदौड़ व उठापटक और अपना वर्चस्व कायम रखने की तिकड़मबाजी सर्वदूर देखी जा सकती है। इतना ही नहीं तो आज जब इस जोड़तोड़ की बीमारी के वायरस की लपेट में आने से बहुत कम सामाजिक व् धार्मिक संगठन बच पाएं हैं ऐसे में संघ संगठन में चुनाव सौहार्दपूर्ण वातावरण में शांतिपूर्वक हो जाना अधिकांश लोगों की समझ से परे है। वास्तव में संघ को समझने के लिए संघ का चश्मा जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक पारिवारिक संगठन है और इसे इसी नजरिये से देखेंगे तो आसानी से सब कुछ समझ आ जायेगा। प्रसन्नता की बात है कि संघ आज भी  विशुद्ध परिवार भावना से कार्य करता है। इसी कारण यहां चुनाव के समय टांग खिंचाई का सब जगह दिखने वाला चुनावी परिदृश्य गायब रहता है। शायद कम लोगों को पता होगा कि संघ में पहले तो लिखित संविधान भी नहीं था। संघ का मानना है कि परिवार में कोई लिखित संविधान न होने के बाद भी हमारे देश में लाखों वर्षों से परम्परा से परिवार चलते आए हैं। इसी आधार पर सामाजिक संगठन क्यों नहीं चल सकते? यहां अधिकारी मतलब अधिक काम करने वाला और अधिक कष्ट उठाने वाला होता है। संघ में पद से नहीं अपने व्यवहार से सम्मान प्राप्त करना होता है। ऐसे में पद की होड़ सिर पैर रख कर गायब नहीं होगी तो क्या होगा? संघ की इस अदभुत कार्यपद्धति का ही परिणाम है कि प्रतिनिधि सभा में आपके आगे पीछे कौन बैठा है? साथ में भोजन कौन कर होता है किसी को पता नहीं चलता। जिनको मिलने के लिए बाहर लोगों में होड़ रहती है यहां वे भी अनाम और साधारण कार्यकर्ता की तरह देखे जा सकते हैं।
संघ संविधान की यात्रा
    
संघ स्थापना की प्रक्रिया, नामकरण, व्यक्ति के बजाए गुरु के रूप में भगवा झंडा स्वीकार करना और कोई औपचारिक सदस्यता आदि न रखना अपने आप में लोगों को हैरान करता है। संविधान को लेकर भी कुछ कुछ ऐसा ही है। प्रारम्भ में संघ का कोई संविधान नहीं था।
सन् 1948 में गांधी हत्या के आरोप में संघ से प्रतिबन्ध हटाने के लिए सरकार की लिखित संविधान की जिद के चलते संघ ने लिखित संविधान स्वीकार किया। एकबार संविधान स्वीकार कर लेने पर संघ पूरी श्रद्धा से मनसा, वाचा और कर्मणा अपने संविधान का पालन करता आया है।
क्या है संघ् का संविधान
वैसे तो संविधान संविधान पढ़ कर संघ में आना और कार्य करने वालों की संख्या अपवाद ही होगी। साधारण स्वयंसेवकों को छोड़ भी दें तो जिन्होंने संघ् के लिए जीवन दिया है ऐसे प्रचारक बन्धुओं में से भी कितनों ने ध्यान से पूरा संघ संविधान पढ़ा होगा यह सर्वेक्षण का विषय हो सकता है। मात्र 8/10 पेज का संघ संविधान शायद सबसे छोटा और साधारण होगा। संविधान के अनुसार प्रत्येक प्रतिज्ञा लिया हुआ 5 साल से सक्रिय स्वयंसेवक शाखा प्रतिनिधि के लिए मतदान कर सकता है, प्रत्याशी भी हो सकता है। प्रत्येक 40 सक्रिय प्रतिज्ञत स्वयंसेवकों पर एक शाखा प्रतिनिधि चुना जाता है। ऐसे 50 शाखा प्रतिनिधि एक अखिल भारतीय प्रतिनिधि चुनते हैं। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सभी चुने हुए प्रतिनिधि, प्रान्त व क्षेत्र प्रचारक, कार्यवाह और संघचालक सरकार्यवाह के चुनाव में मतदाता होते हैं। संघ के अभी तक के इतिहास में सरकार्यवाह का चुनाव सर्वसम्मत लेकिन पूरी चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर होता आया है। संघ् की कार्यपद्धति का ही कमाल है कि सबको लगता है कि नया सरकार्यवाह जैसे उनकी अपनी ही पसन्द है। चुनाव जिस सौहार्द और हंसी मजाक में पूरा होता है आज के इस राजनैतिक द्वेष के वातावरण में उसके साक्षी बनना देव दुर्लभ अवसर ही कहा जा सकता है। यह चुनाव किसी भी प्रकार से देवलोक में हुए घटनाक्रम से कम नहीं कहा जा सकता। हालाँकि देवलोक में भी ईर्ष्या द्वेष की कई कहानियाँ सुनाई देती हैं लेकिन संघ पर ईश्वर कृपा है कि यह संगठन अपनी स्थापना के नो दशक पूरे करने के बाद भी मनुष्य जीवन की सहज कमियों से बचा हुआ है। इसका अर्थ कुछ विषयों पर मतभेद नहीं होते , यह कहना तो ठीक नहीं लेकिन मतभेद स्वस्थ वातावरण में स्नेह के आधार पर सुलझा लिए जाते हैं। संघ की सफलता के पीछे यह बहुत बड़ा कारण कहा जा सकता है। अभी-अभी हुए चुनाव में उतरी क्षेत्र के संघचालक डॉ. बजरँग लाल गुप्त चुनाव अधिकारी थे। उन्होंने पूरी चुनावी प्रक्रिया सम्पन्न करायी।  एक ही नाम आने के कारण सरकार्यवाह के रूप में भैया जी जोशी जी तीसरी बार पुन: चुने गए। चुनाव के बाद नवनिर्वाचित सरकार्यवाह तीन साल के लिए केंद्रीय कार्यकारिणी चुनते हैं। संगठन में संघचालक और सरकार्यवाह का चुनाव और शेष सभी पदाधिकारियों का चयन होता है।
देश समाज की परिस्थितियों का होता है गहन विश्लेषण
प्रतिनिधि सभा में सम्पूर्ण देश की परिस्थितियों का बारीक़ विश्लेषण होता है। समाज, सरकार  और स्वयंसेवकों को दिशा देने के लिए कुछ प्रस्ताव पास किए जाते हैं। संगठन कार्य की गति- प्रगति, दिशा और दशा आदि सब विषयों पर चिंतन- मनन होता है। संघ् कार्य में देशभर में हुए नए प्रयोगों का वर्णन सबके सामने रखा जाता है। इस वर्ष संघ कार्य में सन्तोषजनक वृद्धि दर्ज की गयी। पहली बार 50 हजार  से ज्यादा शाखाएं हुई हैं। अगले वर्ष एक लाख गांवों तक पहुंचने का लक्ष्य तय किया गया। संघ प्रेरणा से चल रहे विविध संगठनों के कार्य का संक्षिप्त वृत्त भी रखा जाता है। हर एक संगठन अपने आप में पूर्ण सृष्टि लगता है। समय आभाव में बड़े बड़े संगठनों को भी तीन चार मिनट में ही अपनी बात कहने के लिए मिल पाते हैं। सब कुछ सुनकर लगता है कि संघ संगठन का यह जगन्नाथ रूपी रथ भारत को विश्वगुरु के पद आरूढ़ किये बिना कैसे रुक सकता है? संगठन कार्य और समाज की नवीन रचना के लिए कैसे कैसे लोग, कितना त्याग और बलिदान कर रहे हैं, सुन कर रोमांच होता है। इस वर्ष दो विषयों पर प्रस्ताव पास किये गए। पहले प्रस्ताव में कम से कम प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में हो इसके सरकार तथा अभिभावकों का आवाहन किया गया तथा दूसरे प्रस्ताव में 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योगदिवस स्वीकार कराने के लिए सरकार, सरकारी अधिकारीयों के परिश्रम के लिए तथा यू एन सबका धन्यवाद किया गया। इसके साथ ही स्वयंसेवकों तथा समाज को योगदिवस को जन-जन का आंदोलन बनाने का आवाहन किया गया। प्रतिनिधि सभा के आखिर में सरसंघचालक जी के पाथेय ने सभी प्रतिनिधि नए जोश और उत्साह के साथ अपने अपने कार्यक्षेत्र में वापिस लौटे।

रिबैरो जी, भारतीय होने पर गर्व हैं या फिर ईसाई होने पर--मोनिका गुप्ता

कुछ दिन हुए एक समाचारपत्र में पंजाब के पूर्व डी.जी.पी .रह चुके श्रीमान् जूलियो रिबैरो जी का एक लेख पढ़ने में आया | इस लेख में उन्होंने संघ एवं भाजपा के विरुद्ध काफी रोष प्रकट किया है | इस लेख में उन्होंने जो विचार लिखें हैं उनमें परस्पर काफी विरोधाभास देखने को मिला और कई बातें तो अपने आप में ही कई प्रश्न खड़े करती हैं | पहली बात तो यह समझ में नहीं आयी कि वह अपने आपके भारतीय होने पर गर्व का प्रदर्शन कर रहे हैं या फिर ईसाई होने के नाते अपने द्वारा भारत के प्रति की गयी सेवाओं के लिए एहसान जतलाने के बहाने ईसाइयत का प्रचार कर रहे हैं | एक तरफ वह संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा किये गए मान-सम्मान का उल्लेख कर रहे हैं तो दूसरी ओर संघ के कार्यकर्त्ताओं की तुलना बिल में घुसे जीवों से कर रहे हैं जो कि मौका पाकर बिलों से बाहर आकर उनकी निंदा कर रहे हैं | वह संघ प्रमुख पर हिन्दू राष्ट्रवादी या साम्प्रदायिक होने का आक्षेप करते हैं तो फिर स्वयं ईसाइयत का ढोल क्यों पीट रहे हैं ? ईसाईयों द्वारा किये जा रहे तथाकथित महान कार्यों का बखान क्यों कर रहे हैं ? मदर टेरेसा के बारे में दिए गए संघ प्रमुख के बयान से इतने आहत हैं कि वह संघ एवं भाजपा को उग्रपंथी तक कहते हुआ भी हिचकिचाए नहीं | ईसाई धर्म की असलियत क्या है यह छिपी नहीं है किन्तु मीडिया द्वारा ऐसी बातों को छिपाने और हिंदुत्व समर्थक बातों को मिर्च-मसाला लगाकर साम्प्रदायिक बताकर उछालने के कारण बहुत से लोग ईसाई धर्म की असलियत के बारे में शायद नहीं जानते | संघ प्रमुख के मदर टेरेसा पर दिए गए बयान कि मदर टेरेसा द्वारा सेवा की आड़ में धर्मान्तरण करना सेवा के मूल उद्देश्य से भटकना है से ईसाई समाज में तो हड़कम्प मचा ही किन्तु निजी स्वार्थ के लिए सभी राजनैतिक दलों ने भी संघ प्रमुख के बयान पर माफ़ी मांगने की वकालत कर डाली | विडम्बना तो यह है कि ईसाईयों को पक्षपात रहित हो सेवा करने का सन्देश देने के स्थान पर मीडिया संघ प्रमुख की आलोचना को अधिक प्रचारित एवं प्रसारित किया है | जहाँ तक मदर टेरेसा की बात है तो उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वह सेवा इसलिए करती हैं ताकि वह अधिक से अधिक लोगों को जीसस के करीब ले जा सकें | इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग ईसा के नज़दीक नहीं हैं उनकी सेवा नहीं करनी |  मदर टेरेसा पर तो हमेशा से ही वेटिकेन की और मिशनरी ऑफ़ चेरिटी की मदद से धर्म परिवर्तन का आरोप लगता ही रहा है | उनकी  दया की मूर्ती ,मानवता की सेविका ,बेसहारा और गरीबों की मसीहा आदि वाली छवि को ग्रहण लगाने वाले आरोप अधिकतर पश्चिम की प्रेस या ईसाई पत्रकारों ने ही लगाये हैं ना कि हिन्दू संगठनों ने | अपने देश के गरीब ईसाईयों की सेवा करने के स्थान पर मदर टेरेसा को भारत के गरीब गैर ईसाईयों के उत्थान में रूचि क्या इशारा करती है ? वह दूसरे के लिए दवाई से अधिक प्रार्थना पर विश्वास करती थी जबकि अपना ईलाज कोलकाता के महंगे से महंगे अस्पतालों में करवाती थी | संत वही है जो पक्षपात रहित हो एवं जिसका उद्देश्य मानवता की भलाई हो | ईसाई मिशनरीओं का पक्षपात तो इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि वे केवल उन्हीं गरीबों की सेवा करना चाहती हैं जो उनके मत को स्वीकार करते हैं | ईसाई मिशनरियां धन,शिक्षा और सेवा का झूठा सपना दिखाकर हिन्दू नागरिकों अधिकतर दलितों एवं आदिवासिओं को ईसाई बनाने पर लगी हुई हैं | पिछड़े वर्गों को डरा-धमका कर,अत्याचारों एवं लालच के द्वारा धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर किया जाता है | न मानने पर जान से मारने की धमकी और फिर भी न मानने पर जान से ही मार दिया जाता है | समय समय पर अनेक विचारकों एवं चिंतकों ने जबरन धरम परिवर्तन का विरोध किया है | गाँधी जी ने कहा है कि मिशनरियों के प्रभाव में हिन्दू परिवार की भाषा,वेश-भूषा,रीति-रिवाज़ का विघटन हुआ है | यदि मुझे कानून बनाने का अधिकार होता तो मैं धर्म परिवर्तन बंद करवा देता | उन्होंने ईसाई मिशनरियों से कहा कि यदि वे पूरी तरह से मानवीय कर्मों तथा गरीबों की सेवा करने के बजाये डाक्टरी सहायता,शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करेंगे तो निश्चित ही मैं उन्हें चले जाने के लिए कहूँगा | इसी सन्दर्भ में मैं अपना एक अनुभव साँझा करना चाहूंगी | मेरा बेटा मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी द्वारा चलाये जा रहे एक कान्वेंट स्कूल में पढ़ा है | एक बार हम लोग उसके स्कूल के आगे से जा रहे थे तो हमने स्कूल में पढ़ाने वाली एक नन को देखा जोकि शहर जाने के लिए शायद लिफ्ट की प्रतीक्षा कर रही थी | हमने उन्हें लिफ्ट दी तो मार्ग में उन्होंने हमें बताया कि वह एक बस्ती में सेवा रूप में पढ़ाने जाती हैं और आवश्यकता अनुसार दवाइयों आदि से सेवा भी करती हैं | उस समय मैं उनके इस सेवा की आड़ में किये जाने वाले धर्म परिवर्तन से अनभिज्ञ थी तो उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुई | घर आकर बेटे से जब इस विषय में बात की और उसने जो कुछ बताया उसे सुनकर मैं आवाक् रह गयी | उसने बताया कि यह लोग उस बस्ती में मुफ्त पढ़ाने और सेवा के बहाने गरीब एवं भोले-भाले लोगों को लालच देकर उनका धर्म परिवर्तन केर उन्हें ईसाई बना देते हैं | उसने बताया कि एक वाहन चालक जो कि स्कूल में ही कार्यरत था को कुछ रूपयों और उसके बच्चों की मुफ्त शिक्षा के लालच में परिवार सहित धर्मांतरण करवा ईसाई बना भी चुके हैं | एक और घटना के अनुसार हमारे करीबी मित्र का बेटा अपने अंकों के अनुसार योग्य होने पर भी सी.ऍम.सी.लुधिआना में मेडिकल में दाखिला नहीं पा सका क्योंकि उसने कॉलेज वालों की ईसाई धर्म की शर्त को मानने से इन्कार कर दिया था | उसने धर्म परिवर्तन करने से शहर परिवर्तन करना बेहतर समझा और केरल जा कर अपनी शिक्षा पूर्ण की | यदि हम इतिहास देखें तो ऐसी घटनाओं से भरा मिलेगा | रिबैरो साहब जिस धर्म का गुणगान करते नहीं अघाते ऐसी घटनाओं के विषय में क्या तर्क देंगे ? उन्होंने संघ या भाजपा पर हिन्दू राष्ट्रवादी होने का आरोप तो मढ़ दिया किन्तु उन्हें यह ज्ञात रहना चाहिए कि हिन्दू धर्म इस भारत भूमि का मूल धर्म है | ईसाई एवं मुस्लिम धर्म तो बाहर से आये धर्म हैं | यह हिन्दू धर्म ही है जो सर्वधर्म समभाव की भावना रखता है | हिन्दू जबरन धरम परिवर्तन नहीं करवाते | घर वापसी कार्यक्रम जिस पर यह लोग ऊँगली उठाते हैं वह तो उन लोगों की स्वेच्छा से अपने मूल धर्म में लौटने की प्रक्रिया है जिनका पूर्वकाल में जबरन धर्म परिवर्तन हो चुका है , नाकि ईसाई धर्म की तरह सेवा,शिक्षा या परोपकार के नाम पर असहाए लोगों को डरा-धमका कर किया जाने वाला कार्य है | फिर जब मोदी सरकार ने एंटी कन्वर्जन बिल पास करने कि हिमायत की तो ईसाइयों एवम् विपक्ष ने इसके विरोध में इतना हंगामा क्यों किया | रिबैरो साहब अपने डीएनए को संघ प्रमुख के डीएनए से अलग नहीं मानते तो फिर ईसाईयों के द्वारा विभिन्न विभागों में दी जाने सेवा का ढिंढोरा क्यों पीट रहे हैं? यदि वह अपने आपको भारतीय मानते हैं तो क्या भारतीय होने के नाते इस भारत भूमि की उनका कोई कर्तव्य नहीं है ? या फिर छद्म रूप से अपने को ईसाई कह कर संघ और भाजपा को हिन्दू राष्ट्रवादी कह कर साथ ही मुस्लिम धर्म का नाम लेकर कहीं न कहीं साम्प्रदायिकता फ़ैलाने का प्रयास तो नहीं कर रहे | ईसाई होते हुए भी भारत की इतनी सेवा की यह जतला कर लोगों की सहानुभूति बटोरने का प्रयास तो नहीं | कुछ भी हो रिबैरो साहब सहित अन्य जितने भी इस मानसिकता के लोग हैं उन्हें यह समझना होगा कि धर्म एक बहुत ही निजी विषय है | प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म प्रिय होता है | यदि वह अपने आपको भारतीय मानते हैं तो उन्हें इस भारत भूमि की सेवा के बदले “स्पेशल ट्रीटमेंट” की अपेक्षा छोड़ मिथ्या आरोप-प्रत्यारोपों से बचते हुए सच्चाई को स्वीकारना चाहिए | यहाँ मीडिया का भी दायित्व बनता है कि वह अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते हुए जो सच्चाई है उसे ही प्रकाशित करे या दिखाए नाकि केवल घटिया लोकप्रियता प्राप्त करने के उद्देश्य से  मिथ्या प्रचार करे |
                  मोनिका गुप्ता ,

                      मोगा |

Sunday, March 22, 2015

डा० भीम राव आम्बेडकर का राष्ट्रीय स्वरुप -डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री


भारत के सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन को जिन्होंने नई दिशा दी , ऐसे डा० भीम राव आम्बेडकर , का समग्र मूल्याँकन अभी भी नहीं हुआ है । उनका व्यक्तित्व विशाल था और अध्ययन का क्षेत्र अति विस्तृत था । लेकिन यह देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि आम्बेडकर अन्ततः अपनी पहचान के लिये केवल दलित नेता के रुप में ही स्थापित हो गये । यह बाबा साहिब आम्बेडकर के व्यक्तित्व के साथ सचमुच अन्याय ही कहा जायेगा । अध्ययन के लिहाज़ से यदि देखा जाये तो आम्बेडकर अर्थशास्त्री ,विधि विशारद और शिक्षा शास्त्री भी थे । धर्म शास्त्र मर्मज्ञ थे । हिन्दू समाज के भीतर की बीमारियों से लड़ते लड़ते उन्होंने देश के सामाजिक जीवन में ख्याति अर्जित की । बाबा साहिब मूल रुप में एक अर्थशास्त्री कहे जा सकते हैं । कोलम्बिया विश्वविद्यालय में जब वे पढ़ाई कर रहे थे तो अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री के लिये उन्हें एक लघु शोध प्रबन्ध भी लिखना था । उन्होंने इस के लिये जो विषय चुना वह भारत पर हिज मैजस्टी की सरकार से पहले राज कर रही ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजस्व व्यवस्था और उससे भारत के हो रहे आर्थिक शोषण से ही सम्बंधित था । विषय का नाम था, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रशासन और वित्त प्रबन्ध । यह विश्वविद्यालय में १५ मई १९१५ को मूल्याँकन हेतु जमा करवाया गया था । लेकिन दुर्भाग्य से आम्बेडकर के इस शोध प्रबन्ध की कहीं चर्चा नहीं होती थी । १९७९ में आम्बेडकर पर शोध कार्य करने वाले बसन्त मून ने बहुत भागदौड़ करके कोलम्बिया विश्वविद्यालय से इस शोध प्रबन्ध की एक प्रति प्राप्त की और आम्बेडकर के बौद्धिक ज्ञान का यह पक्ष सामने आया । आम्बेडकर का निष्कर्ष था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी एक शुद्ध व्यापारिक संस्थान था जिसका उद्देश्य अपने अंशधारकों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा देना होता था । निदेशक मंडल की योग्यता व दक्षता का पैमाना यह नहीं हो सकता था कि भारत में उसने जन कल्याण पर कितना व्यय किया है । उसका पैमाना तो यह होता था कि मंडल कम्पनी के अंशधारकों को कितना मुनाफ़ा बाँटता है । कम्पनी के मुनाफ़े के कारण इंग्लैंड में दूसरे व्यापारियों के मन में ईर्ष्या और विद्वेष पैदा होता था । लेकिन इसके साथ ही वहाँ के सत्ताधारी भी कम्पनी की बाँह मरोड़ते थे और उसके कारण कम्पनी उनको पैसा देती थी । लेकिन कम्पनी लंदन में जितना लुटाती थी , उससे कहीं ज़्यादा भारत के लोगों से बसूलना थी । आम्बेडकर ने पहली बार कम्पनी द्वारा किया जाने वाले शोषण का विश्लेष्णात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया ।
               आम्बेडकर की दूसरी किताब ,"ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त व्यवस्था का विकास - साम्राज्यवादी वित्त व्यवस्था के प्रान्तीय विकेन्द्रीकरण "  थी । यह शोध प्रबन्ध भी कोलम्बिया विश्वविद्यालय में ही प्रस्तुत दिया गया था । इसका निदेशन उस समय वित्त प्रबन्धन  के जाने माने विद्वान एडविन आर.ए सेलिगमेन कर रहे थे । प्रकाशित ग्रन्थ सयाजीराव गायकवाड को समर्पित है ।

             आम्बेडकर को यह अध्ययन करते समय किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा यह जानना रुचिकर होगा । आम्बेडकर लिखते हैं , मुझे अपने अध्ययन या शोध कार्य के दौरान इस विषय पर प्रारम्भिक जानकारी के लिये भी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं थी ।" दरअसल हिन्दुस्तान में इस विषय पर अब तक किसी ने कार्य किया ही नहीं था । लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्य की भारत का शोषण करने वाली नीति को जानने के लिये उसके लोक वित्त और उससे भी आगे उसके विकेन्द्रीकरण को जानना लाज़िमी था । इतना ही नहीं इस महत्वपूर्ण विषय को पूरी तरह स्पष्ट करने के लिये आम्बेडकर , " ब्रिटिश भारत में स्थानीय वित्त " पुस्तक भी लिख रहे थे और उन्हें आशा थी कि यह पुस्तक भी जल्दी ही पूरी हो जायेगी । बाबा साहेब की ये तीनों पुस्तकें मिल कर भारत में अंग्रेज़ों के शोषण के अर्थशास्त्र को स्पष्ट करती हैं । कोलम्बिया विश्वविद्यालय के ही डा० सेलिगमेन लिखते हैं कि मेरी जानकारी में इस विषय पर इतना विस्तृत अध्ययन कभी नहीं किया गया है । उस समय शायद ये दो अर्थशास्त्री ही हुये हैं जिन्होंने भारत में अंग्रेज़ों के शोषण के अर्थ शास्त्र पर गहरा कार्य किया । रमेश चन्द्र दत्त और भीम राव आम्बेडकर । लेकिन इसे क्या कहा जाये कि भीम राव के व्यक्तित्व के इस पहलू की कभी चर्चा नहीं होती । गहरे अध्ययन के बाद आम्बेडकर लिखते हैं ,प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि कि भारत में सीमा शुल्क से राजस्व एकत्रित नहीं किया जाता क्योंकि डर यह है कि इससे भारतीय उद्योग , अंग्रेज़ी उद्योगों के मुक़ाबले सुरक्षित हो जायेंगे । यह बात निर्विवाद है कि भारत की पूरी नीति इंग्लैंड से ही संचालित है और इसका कारण भी स्पष्ट है । भारत का सर्वोच्च कार्यकारी अधिकारी , जो इंग्लैंड में बैठा भारत सचिव है , उसकी मुख्य चिन्ता वहाँ के बाज़ारों को बचाने की है और उसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये भारतीय वित्त प्रबन्धन किया जाता है ।
               लेकिन क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि जिस अर्थशास्त्री ने अंग्रेज़ों की अर्थव्यवस्था का गहरा अध्ययन करके उसे भारत विरोधी सिद्ध किया , केवल भाषण मात्र से नहीं बल्कि दुनिया के अकादमिक जगत के सामने अपने अकाट्य तर्कों से , उसके इस पक्ष की कोई चर्चा ही नहीं करता । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि लोक वित्त प्रबन्धन के जिन लोकोपयोगी सिद्धान्तों की चर्चा बाबा साहेब ने की है , उसको वर्तमान सन्दर्भों में भी परखा जा सकता है या नहीं , इन सम्भावनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिये । बाबा साहेब का अर्थशास्त्री का यह रुप अभी किसी के सामने ज़्यादा नहीं आया है । विदेशी शासकों को राजनैतिक स्तर पर नंगा करने में अनेक राजनीतिज्ञों ने भूमिका निभाई  होगी लेकिन बौद्धिक जगत में उनका साम्राज्यवादी मानवता विरोधी चेहरा नंगा करने के लिये बाबा साहेब ने उन्हीं के हथियार , अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों , का प्रयोग करते हुये यह ऐतिहासिक कार्य किया , इसकी चर्चा नहीं होती । वायसराय कौंसिल में बाबा साहेब श्रम मंत्री थे । उन दिनों उनके भाषण और विधायिका में श्रम नीति को लेकर दिये गये वक्तव्य उनकी मौलिक सोच को इंगित करते हैं । यह ठीक है कि मोटे तौर पर श्रम मंत्री को सरकार की नीतियों के अनुकूल ही बोलना पड़ता है , लेकिन फिर भी यदि बाबा साहेब के उन दिनों के भाषणों का अध्ययन किया जाये  तो उनकी श्रम नीति के विषय में आदर्श सोच क्या थी , इसका पता चलता है । दरअसल उन दिनों दुनिया भर के मज़दूरो एक हो जाओ , के दिन थे । और यह माना जाता था कि किसी भी देश की कल्याणकारी श्रम नीति का आधार मार्क्सवादी सोच ही हो सकती है । लेकिन आम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे । उससे इतर उनकी श्रम नीति किसी के लिये भी गहन अध्ययन का विषय हो सकती थी , लेकिन उसको भुला दिया गया ।
                    देश के विधि विषारदों की पंक्ति में बाबा साहेब अग्रणी थे । संघीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के वे अध्यक्ष थे । अध्यक्ष थे , इतना कह देने मात्र से उनके योगदान को समझा नहीं जा सकता । प्रारूप समिति के शेष सदस्यों का क्या योगदान रहा , यह किसी से छिपा हुआ नहीं है । अधिकांश कार्य भीम राव को ही करना पड़ा । लेकिन यहाँ प्रश्न केवल बौद्धिक योगदान का ही नहीं है । संविधान की मूल और आधारभूत अवधारणाओं को स्थापित करने में बाबा साहेब का क्या योगदान था , यह जान लेना बहुत महत्वपूर्ण है । एक बात जिस की आजकल बहुत चर्चा हो रही है , वह संविधान की दो आधारभूत अवधारणाओं , पंथ निरपेक्षता और समाजवाद को लेकर है । आम्बेडकर ने इन दोनों अवधारणाओं को मूल संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था । शामिल करने की बात तो दूर , बल्कि इस का विरोध भी किया था । बाबा साहेब के विरोध को आज के सन्दर्भों में नहीं समझा जा सकता । वह युग १९४७-१९५० का ऐसा युग था जबकि समाजवाद की लहरों में बहना प्रगतिशीलता की निशानी समझा जाता था । पंडित नेहरु तो समाजवाद की खाज के सबसे बड़े शिकार थे । तब भी बाबा साहेब ने इसे प्रस्तावना में शामिल नहीं किया । प्रो० के टी शाह ने इसे शामिल करने का आग्रह किया था । आम्बेडकर का कहना था कि हम किसी विशेष वाद या विचार को अपनी भावी पीढ़ियों के गले मैं कैसे बाँध सकते हैं ? मेरा कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि संविधान सभा में और उसके बाद संसद में भी दिये गये उनके भाषण , उनकी आधारभूत अवधारणाओं पर चिन्तन को स्पष्ट करते हैं ।  यह उनका एक मौलिक चिन्तक होने के स्वरुप को स्पष्ट करता है । लेकिन दुर्भाग्य से उनके आन्दोलनकारी स्वरुप ने उनके बाक़ी सभी स्वरुपों को इतना आच्छादित कर लिया है कि शेष की चर्चा ही नहीं होती ।
                    आम्बेडकर ने दलित समाज की समस्याओं के लेकर बौद्धिक चिन्तन किया , उसके समाधान के लिये व्यवहारिक उपाये सुझाए और फिर उनकी प्राप्ति के लिये आगे होकर आन्दोलन किये । लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को एकांगी दृष्टिकोण से देखा जाता है और फिर बाबा साहेब को भी उसी एक वर्ग का उद्धारक या नेता कह कर स्थापित किया जा रहा है । लेकिन क्या भीम राव के ये प्रयास सचमुच एकांगी थे और भारतीय या हिन्दू समाज की समग्र प्रक्रिया से कटे हुये थे ? दरअसल ऐसा है नहीं । वे जानते थे कि दलित समाज का मामला सम्पूर्ण हिन्दू समाज की आन्तरिक व्यवस्था का हिस्सा है और उसी से गुँथा हुआ है । इसलिये इसका समाधान भी इस सम्पूर्ण व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन से ही संभव है । वे इसी लिये प्रयासरत थे । यदि इस लिहाज़ से देखा जाये तब भी बाबा साहेब पूरे हिन्दू समाज के क्रान्तिकारी उद्धारक कहे जा सकते हैं किसी एक वर्ग के नहीं । अब वक्त आ गया है कि बाबा साहेब आम्बेडकर के समग्र राष्ट्रीय स्वरुप को प्रस्तुत करके उनके साथ न्याय किया जाये , न की उन्हें एक वर्ग का नेता प्रस्तुत करके उनके महान व्यक्तित्व को धूमिल किया जाये । आम्बेडकर के अध्येताओं के लिये इसका ध्यान रखना जरुरी है । अभी तक भीम राव को जितना समझा गया है , वह उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का एक चौथाई भी नहीं है । जब उनका पूरा राष्ट्रीय स्वरुप सामने आयेगा , तभी पता चलेगा कि हमारे युग ने किस विभूति को जन्म दिया था । महात्मा गान्धी शायद यह समझ गये थे , तभी संविधान रचना के लिये जब पंडित नेहरु किसी विदेशी संविधान विशारद को निमंत्रित करने की बात कर रहे थे तो गान्धी ने कहा था कि जब देश में आम्बेडकर जैसा विधि विशारद बैठा है तो बाहर से किसी को खोजने की क्या जरुरत है ?

-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
(लेखक पंजाब  स्कूल शिक्षा बोर्ड के उप चेयरमैन है) 

भारतीय कैलेण्डर और काल को प्रामाणिक करते महाकालेश्वर -- प्रवीण गुगनानी


विश्व की सभी सभ्यताओं में स्वयं को सर्वोत्तम, सभ्यतम, प्राचीनतम बतानें में एक तथ्य का उल्लेख अवश्य किया जाता है – वह है समय अर्थात काल की गणना और गणना का वैज्ञानिक आधार. काल गणना की दृष्टि से हम भारतीय सौभाग्यशाली हैं कि सम्पूर्ण विश्व इस संदर्भ में हमारें शास्त्रों और परम्पराओं को देखता है. टाइम या समय यानि काल की चर्चा हो तो एक स्थान का उल्लेख अवश्यंभावी हो जाता है और वह है महाकाल का स्थान उज्जैन. समय अर्थात काल को जिस स्थान पर महान और ईश्वर तुल्य भाव प्राप्त हुआ वह दुर्लभ स्थान है महाकाल अर्थात महाकालेश्वर अर्थात उज्जैन. समय को ईश्वरीय और आराध्य रूप में स्थापित करनें का उदाहरण अन्यत्र सम्पूर्ण विश्व में दुर्लभ है. विश्व की श्रेष्ठतम भारतीय काल गणना और कैलेण्डर सिस्टम का केंद्र स्थान रहा है क्षिप्रा किनारें बसा उज्जैन! स्कन्द पुराण एवं महाभारत अनुसार उज्जैन नगरी 3000 साल पुरानी है. राजा चंद्रसेन नें यहां एक भव्य एवं काल तंत्र सिद्ध मंदिर बनाया गया जो महाकाल का पहला मंदिर था. यहाँ भगवान शिव को कालरूप में पूजित कर महाकालेश्वर की उपाधि से पुकार गया. उज्जैन विंध्य पर्वतमाला के समीप, क्षिप्रा किनारे समुद्र तल से 1678 फुट की ऊंचाई पर 23 डिग्री. 50' उत्तर देशांश और 75डिग्री .50' पूर्वी अक्षांश पर स्थित है. यह नगर भूगोल की दृष्टि से एक दिव्य, अद्भुत, सिद्ध और शक्तिशाली कोण से सूर्य की किरणों से साक्षात्कार करता है. प्राचीन भारतीय मनीषियों, ऋषियों, तांत्रिकों और वैज्ञानिकों ने इस स्थान के भौगोलिक, ज्योतिषीय, खगोलीय महत्व को जान लिया था. उज्जैयिनी की इस इस प्राचीन पहचान का ही परिणाम था कि यहाँ समय के देव अर्थात महाकाल का मंदिर बना. भारत भर के सर्वाधिक आराध्य 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर का देवस्थान उज्जैन में होना उसके सर्वकालिक स्वरूप को आलोकित करता है.
               प्राचीन भारतीय मानव शारीर विज्ञान में नाभि को मानव की संज्ञा, प्रज्ञा और विज्ञा का स्थान मानकर उसे ही ऊर्जा स्त्रोत स्थान माना गया है. भारतीय काल गणना में उज्जैन से गुजरनें वाली विषुवत रेखा का सूर्य से विशिष्ट कोणीय संपर्क ही है जिसके कारण मनीषियों में उज्जैन को पृथ्वी के मणिपुर चक्र का नाम दिया है. महाकाल की इस नगरी में अनेकों घटनाओं, वृतांतों, व्यक्तियों, आविष्कारों, साधनाओं, ग्रंथो और भविष्य सूत्रों का आविष्कार हुआ है तो इस नगरी की काल गणना की क्षमता के आधार पर हुआ है. निश्चित ही काल को साधनें और मापनें की इस स्थान की क्षमता का ही प्रभाव भी है कि इस स्थान पर ऋषि संदीपनी, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर, अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, जदरूप, वृष्णि-वीर, कृष्ण-बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, सम्राट अशोक, सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रप चष्टन, रुद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मुंजराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे कालजयी व्यक्तित्वों का कृतित्व इतिहास के प्रत्येक कालखंड को प्रकाशित करता रहा है. वस्तुतः यह उज्जैन के महाकाल स्वरूप का ही दर्शन है जो कि आज विश्व में हमारी भारतीय काल गणना को स्वीकार्य, आदरेय और अकाट्य रूप में स्वीकार हो रही है. आज नासा में हमारी काल गणना और कुम्भ में होनें वाले कल्पवास के अध्ययन हेतु एक पृथक सेल रात दिन इसके  अगुह्य समीकरणों को सुलझानें में लगा हुआ है. आज जबकि हम विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पश्चिम की ओर टकटकी लगाए देखतें रहतें हैं तब यह तथ्य हमें चमत्कृत करता है कि जब यूरोप में एक हजार से ऊपर की गणना का ज्ञान नहीं था तब हमें गणित की विराटतम संख्या तल्लाक्षण का भी ज्ञान था. तल्लाक्षण अर्थान एक के आगे त्रेपन शून्यों को लगानें से निर्मित संख्या. ललित विस्तार नामक गणित के ग्रन्थ में तथागत बुद्ध उनकें समकालीन गणितज्ञ अर्जुन से उज्जैन क्षेत्र में ही चर्चा करते हुए तल्लाक्षण की व्याख्या इस प्रकार देतें हैं – सौ करोड़ = एक अयुत, सौ अयुत = एक नियुत, सौ नियुत = एक कंकर, सौ कंकर = एक सर्वज्ञ और सौ सर्वज्ञ का मान एक विभुतंगमा और सौ विभुतंगमा का मान एक तल्लाक्षण के बराबर होता है.
       भारतीय काल गणना में उज्जैन के महत्त्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि सांस्कृतिक भारत के सर्वाधिक सनातनी और धार्मिक आयोजन सिंहस्थ हेतु नियत चार स्थानों में से एक स्थान का गौरव उज्जैन को प्राप्त है. जब मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु प्रवेश के दिव्य मुहूर्त में उज्जैन में महाकुम्भ का आयोजन होता है. पिछले हजारों वर्षो के इतिहास में प्रत्येक कालखंड में उज्जैन की इस प्रतिष्ठा को राजाओं, ऋषियों, खगोल वैज्ञानिकों और तांत्रिकों ने समय समय पर पहचाना. परिणाम स्वरुप हर काल खंड में उज्जैन में विशिष्ट शैली के विज्ञान आधारित निर्माण हुए.
        जयपुर के महाराजा जयसिंह नें 1719 में वेधशाला (प्रेक्षागृह) का निर्माण कराया था. इसमें तारामंडल का सुन्दर वास्तु है एवं दूरबीन लगी है. यहाँ लगे उपकरण से प्रत्येक खगोलीय परिस्थिति का विषुवत रेखा से किसी भी कोण के झुकाव का माप किया जा सकता है. शेष विश्व के खगोल वैज्ञानिकों के लिए यह उस समय असंभव कार्य था. उज्जैन को स्पर्श कर निकलती देशांतर रेखा के कोण से खगोलीय प्रयोगों को सिद्द करनें हेतु यहाँ चार यंत्र समरात यंत्र, नाद यंत्र, लम यंत्र, दिंगारा यंत्र लगाए गए थे. भारत वर्ष की प्रमुख काल गणना अर्थात कैलेण्डर का मूल स्त्रोत पंचांग है, और पंचांग उज्जैन में किये खगोलीय प्रयोगों का ही सिद्धस्थ स्वरुप है.
           सर्वमान्य है कि भारतीय पुराणों में कथित प्रत्येक अध्याय, वाक्य और शब्द का कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य होता है. उज्जैन के संदर्भ में पुराणों में कथ्य है कि यह मोक्षदायिनी नगरी है, ऐसा कहनें के पीछे संभवतः नौग्रहों सहित सूर्य और सम्पूर्ण ब्रह्मांड का उज्जैन से विशिष्ट कोणीय स्थान ही प्रमुख रहा होगा. भूमध्य रेखा पर स्थित उज्जैन के विकसित, प्रतिष्ठित और महाकाल स्वरुप को पुराणों, उपनिषदों, और महाभारत में आनें उल्लेख से समझा जाना चाहिए. यहाँ विश्व के आद्य इतिहास से सम्बंधित पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में बहुधा ही मिलती रहती हैं. कृष्ण और बलराम को विद्यार्थी रूप में गुरु संदीपनी नें अपनें आश्रम में इस नगरी में शिक्षित किया था. इस नगरी का पुण्य प्रताप और तेजस, ओरस का प्रभाव ही रहा कि प्रत्येक कालखंड में यहाँ दिग्विजयी और लब्ध प्रतिष्ठित राजा और महापुरुष हुए, सिद्ध वैज्ञानिकों ने यहाँ साधना की, ज्योतिष शास्त्रियों नें यहाँ रहकर कल्प वास किये और अखिल-निखिल वैश्विक मानवता को अनेकों कालजयी गणितीय सूत्र प्रदान किये. गणितज्ञों की एक सुदीर्घ परम्परा और संस्थान के उत्तराधिकारी, “लीलावती” व “बीज गणित” जैसे गणितीय शास्त्रों के लेखक भास्कराचार्य उज्जैन की वेधशाला के मार्गदर्शक थे. उन्होंने पृथ्वी में “गुरुत्वाकर्षण बल” की खोज उज्जैन में ही की थी. 12वीं शताब्दी के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य नें उज्जैन में ही ज्योतिष शास्त्र की अद्वितीय पुस्तक “सिद्धांत शिरोमणि” का लेखन कार्य भी किया. गणितीय समीकरणों को हल करनें की उनकी “चक्रवात पद्धति” तत्कालीन वैश्विक परिदृश्य में अन्य सभ्यताओं में अग्रज की भांति सम्मानित होती थी. उज्जैन से सम्बद्ध इन्ही महान भास्कराचार्य ने समय की सबसे छोटी इकाई “त्रुटि” और सबसे बड़ी ईकाई “कल्प” का परिचय शेष विश्व से कराया जिसकी कल्पना भी पाश्चात्य राष्ट्रों और उस समय की अन्य तथाकथित विकसित सभ्यताओं को दूर दूर तक नहीं थी. शुद्धतम काल गणना की सर्वाधिक मान्य भौगोलिक स्थली महाकाल नगरी उज्जैन में ही भास्कराचार्य ने निम्नानुसार कालगणना मानव सभ्यता को प्रदान की थी –
225 त्रुटि = 1 प्रतिविपल
60 प्रतिविपल = 1 विपल (0.4 सैकण्ड)
60 विपल = 1 पल (24 सैकण्ड)
60 पल = 1 घटी (24 मिनिट)
2.5 घटी = 1 होरा (एक घण्टा)
5 घटी या 2 होरा = 1 लग्न (2 घण्टे)
60 घटी या 24 होरा या 12 लग्न = 1 दिन (24 घण्टे)
एक विपल 0.4 सैकण्ड के बराबर है तथा त्रुटिका मान सैकण्ड का 33,750वां भाग है, लग्न का आधा होरा कहलाता है, होरा एक घण्टे के बराबर है. यूरोपीय आवर या हावर इसी होरा से बना शब्द है! सृष्टि का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1, रविवार हुआ. इस दिन के पहले होराका स्वामी सूर्य था, उसके बाद के दिन के प्रथम होरा का स्वामी चन्द्रमा था. इसलिये रविवार के बाद सोमवार आया. इस प्रकार सातों वारों के नाम सात ग्रहों रख कर सम्पूर्ण विश्व नें हमारी पौराणिक संगणना को मान्य किया किन्तु तत्पश्चात उसमें चतुरता पूर्वक अपनें पुट मिलाते हुए उसे अपना नाम देते और आविष्कार बताते चले गए. समय की सबसे बड़ी इकाई कल्पको माना गया, एक कल्प में 432 करोड़ वर्ष होते हैं. एक हजार महायुगों का एक कल्प माना गया जो कि निम्नानुसार है -
1 कल्प = 1000 चतुर्युग या 14 मन्वन्तर
1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी

1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष
-- Praveen Gugnani, guni.pra@gmail.com 09425002270