Sunday, March 22, 2015

भागवत् की हिट लिस्ट में रिबैरो ! --राकेश शांतिदूत


आतंकवाद के दौर में पंजाब के डीजीपी रहे जूलियो रिबैरो जिन्हें लोग रिबैरियो के नाम से संबोधित करते आये हैं, का एक लेख 'भागवत द्वारा खोले मोर्चे ने मुझे फिर से हिटलिस्ट पर धकेला' शीर्षक से बुधवार के पंजाब केसरी में पढऩे को मिला। इस लेख की प्राप्ति के स्त्रोत के रूप में शार्ट फार्म में इस्तेमाल किए गये अंग्रेजी शब्दों से ऐसा लगता है कि मूल रूप से यह अंग्रेजी के दैनिक अखबार इंडियन एक्सप्रैस से लिया गया है। लेख के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है कि उसकी सामग्री राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत् के वर्तमान में  प्रसारित हुए वक्तव्यों को केन्द्र में रख कर तय की गई है। नि:सन्देह विचार के प्रकट करने की स्वतंत्रता भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का सर्वोत्तम एवं सर्वोच्च गुण है और नागरिकों को प्राप्त संवैधानिक अधिकार भी। इस स्वतंत्रता के तहत भागवत् के जिस उद्देश्य प्राप्ति के प्रयास पर रिबैरो ने जो टिप्पणी की है, उनका खुद का उद्देश्य भी कुछ अलग दिखाई नहीं पड़ता। भागवत के जिस उद्देश्य की ओर रिबैरो इशारा करते दिखाई दिए हैं वह संघ के मूल सिद्धांत 'राष्ट्रवाद' के प्रति उनके राष्ट्र जागरण के अभियान से जुड़ा है। इसके विपरीत रिबैरो का उद्देश्य विशुद्ध रूप से ईसाई समुदाय के दायरे में सीमित दिखाई पड़ा है। कहीं न कहीं यह ईसाईयों के सेवा की आड़ में धर्मांतरण के मिशन को सही साबित करने का प्रयास भी कहा जा सकता है। सही मायनों में इस लेख का केन्द्र बिन्दू भागवत् के वक्तव्यों को बनाये जाने के बावजूद इस की विषय वस्तु ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के अभियान से अलग नहीं हो पाई। 
इस लेख में रिबैरो ने पंजाब में आतंकवाद के दौर से लडऩे के लिए उनके खुद के त्याग के रूप में पदावनति स्वीकारने और श्रेय लेने के रूप में पंजाब के हिन्दुओं और विशेषत: आर एस एस के स्वयंसेवकों की शाखा के दौरान हुई शहादतों पर खुद शोक प्रकट करने जाने का उल्लेख किया है। रिबैरो खुद के इस 'त्याग' को तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा पूछे गये सवाल से अनुमोदित करना तो इस लेख में अनिवार्य माने हुए हैं, लेकिन पंजाब में आतंकवाद को जड़ से उखाडऩे का श्रेय देने के मामले में पंजाब की हिन्दू-सिक्ख एकता, तत्कालीन डीजीपी के पी एस गिल और ओपी शर्मा की भूमिका, दिवगंत मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की शहादत और साम्प्रदायिक एकता एवं सद्भाव के विषय में संघ नेतृत्व की भूमिका का उल्लेख करना जरूरी नहीं समझे। खुद के त्याग, बहादुरी और श्रेय के संदर्भ में उल्लेख करते हुए वर्तमान में रिबैरो को यह लगने लगा है कि वह अपने ही देश में अजनबी हो गये हैं। अपनी ओर अपने धर्म की सुरक्षा की चिंता में वह इस कदर जज्बाती दिखाई पड़े हैं कि पंजाब के डीजीपी के रूप में निभाये गये अपने सरकारी दायित्व को वह पंजाब कीजनता पर एहसान साबित करने की कोशिश करते दिखे हैं। बकौल रिबैरो आतंकवाद में जिन लोगों की उन्होंने सुरक्षा की थी, उन बहादुर पंजाबियों को वह अब चूहों की भांति बिलों से बाहर आकर उनकी निंदा करने का दुस्साहस बता रहे हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद संघ के घर वापिसी कार्यक्रमों और क्रिसमस को गुड गवर्नेंस डे घोषित करने, दिल्ली के चर्चों और ईसाई स्कूलों पर हमलों को वह एक लघु आकारी और शांतिप्रिय समुदाय को लक्ष्य बनाये जाने के रूप में देखते हुए ईसाई मिशनों के भारत में शिक्षा और सेवा में प्रभावशाली योगदान को दर्ज करते हुए धर्मांतरण को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। रिबैरो अपने इस लेख में भारतीय सेना का प्रमुख एक ईसाई के होने के साथ-साथ जलसेना की कमान में इसी समुदाय का आधिपत्य होने की बात करते हुए ईसाई समुदाय के सेना में योगदान का उल्लेख करते हैं। वह भारत में दो प्रतिशत आबादी वाले अपने ईसाई समुदाय की पीड़ा और भय को व्यक्त करते हुए संघ के लक्ष्य को मुसलमानों के विरूद्ध जोड़ते हुए इससे होने वाली प्रतिक्रिया की आशंका से सिहर उठने का एहसास शब्दों में प्रकट करते हैं।
नि:सन्देह रिबैरो की देश भक्ति, बहादुरी और पंजाब की जनता पर उनके 'एहसान' को उसी प्रकार से मान्यता मिलनी ही चाहिए जैसे वर्दी में प्रत्येक सैनिक, सिपाही, अधिकारी या जनरल को उसके दायित्व निर्वाह के लिए मिलती है। इसके बावजूद उन्हें यह आज्ञा नहीं दी जा सकती कि वह राष्ट्रीय योगदान को साम्प्रदायिक योगदान के रूप में परिभाषित करें। ना ही भारत के धर्म सापेक्ष रूप को धर्मनिरपेक्षता के हथियार से किसी विशेष उद्देश्य की गर्ज से ध्वंस करने की आज्ञा दी जा सकती है। ईसाई मिशनों की भारत में सेवा को मान्यता के साथ इतिहास गवाह है कि गुरु गोबिंद सिंह जी की सेनाओं में भाई कन्हैया जी ने मुगल सेनाओं के घायलों को भी युद्ध क्षेत्र में पानी पिलाया था और उनका ईलाज किया था। वर्तमान में भी भारतीय मूल के जैन समुदाय, सिक्ख समाज, वाल्मीक-रविदासिया-कबीरपंथी समाज, सनातन धर्म, आर्य समाज, नामधारी, निरंकारी सम्प्रदाय सहित संघ व अन्य कई संस्थाएं देश के धर्म-सापेक्ष रूप में बिना किसी भेदभाव के शैक्षिक एवं चिकित्सा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मानवता की सेवा की अपनी परंपरा का पालन कर रही है , लेकिन इनका मिशन धर्मांतरण कदापि नहीं रहा है। भारत पाकिस्तान बंटवारे में भी संघ ने हजारों मुस्लिम बंधुओं की सुरक्षा, संभाल, सेवा कर उन्हें सरहद तक सुरक्षित पहुंचाया था। संघ ने हमेशा राष्ट्रवाद को अपना अभियान बनाया है ना कि हिन्दू धर्मांतरण का कोई मिशन चलाया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत के सांस्कृतिक आधार पर भारत को हिन्दू राष्ट्र बताये जाने पर यदि आपत्ति व्यक्त की जा रही है तो फिर सेवा के  एवज में श्रेय और धर्मांतरण को मूल्य रूप में अदा किए जाने की इच्छा भरी साजिश को भारत विरोधी क्यूं नहीं कहा जाना चाहिए। रिबैरो की चिंता किसी विशेष लक्ष्य को निर्धारित करके अर्थपूर्ण रूप में व्यक्त की गई है। वैसे भी सेवा के एवज में श्रेय को मूल्य रूप में प्राप्त करने की रिबैरो की चेष्टा ईसाई मिशनरियों की सेवा की आड़ में उनके वास्तविक उद्देश्य को प्रकट करने वाली ही है फिर भी मदर टेरेसा यदि ऐसी कोई इच्छा रखे तो वह उनके मिशन का हिस्सा हो सकता है। लेकिन रिबैरो वर्दी में भी अपना योगदान एक भारतीय की अपेक्षा ईसाई मिशनों वाली मानसिकता से ही क्यूं डालते रहे, यह बात कई सवाल खड़े कर रही है।
--राकेश शांतिदूत 
संपादक, दैनिक मैट्रो एनकाउंटर

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