Tuesday, March 10, 2015

महाराष्ट्र सरकार के गौहत्या पर प्रतिबंध क़ानून दूसरे प्रांतो के लिए भी नीव बने --विनायक सूद

जैसा की आप जानते हैं की आदरणीय राष्ट्रपति जी ने सालों से अटके महाराष्ट्र सरकार के गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, इससे पुरे देश में ऐसे क़ानून के लिए नींव बन गयी है। हम सब देशवासियों के लिए एक नवीन किरण का जन्म हुआ है। सबसे पहले तो में महाराष्ट्र सरकार को इस युगांतकारी घटना के लिए आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने कुछ चंद आलोचकों की परवाह न करते हुए यह दृढ़ संकल्प लिया है। गौमाता से करोड़ों देशवासियों की आस्था जुड़ीं हुई हैं और अब समय आ चूका है की ऐसे निर्णायक कदम उठाये जाएँ। चूँकि हमारा देश विभिनताओं से भरा हुआ है तो स्वाभिविक है की कुछ लोगों को गौमांस पर प्रतिबन्ध से आक्रोश पैदा हुआ है। यह अनुच्छेद् उन लोगों के लिए ही समर्पित है। ऐसे क्या कारण हैं की मांस मछली खाना प्रतिष्ठा का प्रतीक बनता जा रहा है? गौमाता की पूजा हिन्दूओं के लिए एक महत्वपुर्ण क्रिया है। गौमाता जीता जागता प्रेरणा का स्रोत है। जन्म से लेके मृत्यु तक गौमाता हम मनुष्यों का जीवन सरल बनाने के लिए कट जाता है। इस अटूट समर्पण के बाद भी अगर हम इन्हें क्रूरता का शिकार बनाते हैं तो इससे ज़्यादा शर्म की बात नहीं हो सकती। 
पिछले कुछ दिनों में बहुत सारे मित्रों के साथ इस विषय पर चर्चा और बहस हुई। इस चर्चा और बहस में से एक निष्कर्ष सामने आया की ऐसा एक भी तर्क संगत कारण नहीं है कि किसी मनुष्य को मांसाहारी होना चाहिए। सबसे आम कारण जो सामने आता है - स्वाद! मुझे भी आपके जितना आचार्य होता है की कुछ तो हमारे ही हिन्दू भाइ-बहन है जिन्हें गौमांस स्वाद लगता है! क्या स्वाद के मारे हम इतने स्वार्थी हो गए हैं की हमें पर्यावरण की चिंता ही नहीं है? कल अगर हमे इंसान का मांस भी स्वाद लगने लगे तो क्या हम इंसानों को भी मारना शुरू कर देंगे? अगर हम सब कुछ केवल स्वाद के लिए ही खाते हैं तो इतनी सारी दवाइयाँ क्यों खाते है जो की कड़वी होती हैं? मैं यह प्रश्न मांसाहारियों को अवश्य पूछना चाहूँगा। दूसरा तथ्य जो सुनने में आता है की यह तो "हमारी मर्ज़ी है की क्या खाएं, क्या न खाएं?"। यह पर्यावरण हम सब का है। किसी एक व्यक्ति के कर्म हम सब पर असर करते हैं। ऐसे में कोई इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है? कुछ लोगों ने यह बताया की उनके मांसाहारी होने से धरती पर संतुलन बना हुआ है! यह मात्र अज्ञानता की बात है। उदाहरण के लिए आप एक मुर्गी ले लें। हम रोज़ उसे थोड़ा थोड़ा दाना डाल कर बड़ा करते हैं और फिर उसे मार कर अपना एक दिन का भोजन बना देते हैं। अगर हम उस मुर्गी को सीधा खाने के बजाए उसके खाये हुए दाने को खाते तो एक दिन की बजाए कई दिन तक हमारे भोजन का प्रबंध हो जाता। आपसे ही जानना चाहूँगा, हम भोजन को बचा रहे हैं की व्यर्थ कर रहे हैं? इस लिए एक भी कारण नहीं है की हमें माँसाहारी बनना चाहिए। कुछ लोग इसको सांप्रदायिक नज़र से देख रहे हैं। ऐसा कोई भी मज़हब नहीं है जिसमें गौमांस खाना अनिवार्य है। इस स्थिति में उनके धर्म को कोई चोट नहीं पहुँच रही तो सांप्रदायिक नज़र से देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अधिकतर मुस्लिम देशों में सूअरों का कत्लेआम करने की अनुमति नहीं है तो फिर भारत में गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने पर बवाल क्यों? अगर धार्मिक दृष्टिकोण को छोड़ कर आर्थिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो भी गौहत्या नुकसानदायक है। जीवित गौमाता से मिलने वाली आर्थिक सहायता उनकी मृत्यु से मिलने वाले धन से कहीं ज़्यादा है। गौमाता को मूल्य बना कर ग्रामीण भारत में आर्थिक क्रांति की शुरुआत की जा सकती है। गौमाता से हमें दूध, मूत्र एवं गोबर मिलता है जो की मनुष्यों के लिए अत्यंत लाभदायक है। इन्ही कारणों को मद्देनज़र रखते हुए हमें इस कानून की प्रशंसा करनी चाहिए और यह भी प्रयत्न करना चाहिए के ऐसा कानून पूरे देश में लागू हो। 
धन्यवाद। जय श्री कृष्णा।

                                                                                    --विनायक सूद

No comments:

Post a Comment