Friday, January 23, 2015

उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की 'राष्ट्र' बारे भ्रमक अवधारण है चिन्ताजनक विडम्बना-- कृष्ण लाल ढल्ल

हमारे उपराष्ट्रपति महोदय हामिद अंसारी ने हाल ही में सम्पन्न भारतीय इतिहास कांग्रेस के 75वें अधिवेशन में अपने उद्घाटन भाषण में एक ऐसी बात कह दी जो भारत को एक रस राष्ट्र नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय मानने वाले तत्वों को प्रोत्साहन का कारण बन सकती है।
मीडिया में प्रकाशित समाचार के अनुसार हामिद अंसारी ने अपने सम्बोधन में कहा - 'समरूप राष्ट्र का विचार ही समस्या पैदा करता है ... देश में 4600 से अधिक समुदायों की मौजूदगी के बीच एक प्रकार की पहचान का प्रचार खतरनाक है। इतिहास और आस्था का घालमेल भी खतरनाक है क्योंकि इतिहास आस्था आधारित नहीं हो सकता। दोनों का दायरा अलग-अलग है।'
नहीं कह सकते कि हामिद अंसारी का 'समरूप राष्ट्र' से क्या अभिप्राय: है। जो स्तरीय तौर पर जो इस का अर्थ और भावप्रतीत होता है, वह यह कि अपने देश में आस्था, जाति क्षेत्र या भाषाओं के आधार पर कई उपराष्ट्र हैं और उन उपराष्ट्रों की अलग-अलग पहचान खत्म करके समरूप (एक हद, राष्ट्र बनाने का प्रयास हो रहा है।)
यदि यही उनका अभिप्राय है तो यह न केवल विभाजनकारों और अमान्य है बल्कि उपराष्ट्र पद पर आसीन हामिद अंसारी द्वारा इस का तुरन्त स्पष्टीकरण किये जाने की अनिवार्य आवश्यकता लगता यह है कि उन्होंने राष्ट्र और समान की अवधारण का घाल मेल कर दिया है जो उसी तरह खतरनाक है जैसा उन्हेंने आस्था और इतिहास के घाल मेल को अपने सम्बोधन में करार दिया है।
इस संदर्भ में यहां 'राष्ट्र' की अवधारण की प्रस्तुति सामायिक होगा। राष्ट्र एक जीवमान इकाई है जो समुदायों को जोड़तोड़ से नहीं बनता। एक विशिष्ट भू-भाग में बसे समाज द्वारा लम्बे कालक्रम में जो संस्कृति, जीवन मूल्य, इतिहास और विशिष्ट निष्ठाएँ प्रतिष्ठित होती हैं, उन सबका समुच्चय ही एक राष्ट्र प्रस्तापित करता है। उन्हीं निष्ठाओं के कारण उस राष्ट्र के 'जन' में आपसी आत्मीयता, उस की संस्कृति व इतिहास के प्रति गौरव, मातृभूमि के प्रति भक्ति और इन सबके लिए सम्र्पण, त्याग, बलिदान, प्राक्रम और पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है। एक और तत्व राज्य है जो राष्ट्रीय समाज और देश को व्यवस्था और सुरक्षा देता है और विश्व में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है।
स्पष्ट है कि एक देश के समाज के सभी जनों की राष्ट्रीयता एक ही होती है और उनकी राष्ट्रीयता की भावना में बहुलता, किसी प्रकार का अनुपात या विविधता व विभिन्नता को कोई स्थान नहीं होता। हमने देखा है कि 1947 में इस्लाम मजहब वाले समुदाय को मजहब के आधार पर अलगाव के प्रभाव में एक अलग राष्ट्रीय इकाई मान कर मातृभूमि का एक भाग पाकिस्तान के रूप में प्रस्थापित हो गया। यह यहां उपराष्ट्रों की अवधारणा का परिणाम था।
निश्चय ही बचे भारत में मजहब (आस्था) के आधार पर किसी भी उपराष्ट्र का वजूद कदापि नहीं माना जा सकता। इसी संदर्भ में उपराष्ट्रपति महोदय के 'समरूप' विचार का संज्ञान लिया गया है।
हां, यदि 'समरूप विचार' से उनका अभिप्राय समरूप समाज से है तो वह पूरी तरह ठीक है। हमारा यह प्राचीन समाज जिस संस्कृति का प्रदाता है, उसमें यकीनन न एक रूपता है और न इस दिशा में कोई प्रयास मान्य हो सकता है। भारतीय संस्कृति की तो विशेषता ही यही है कि यहां न केवल अनेकों आस्थाएं मौजूद हैं बल्कि व ह पूरी स्वतन्त्रता व निर्भयता से अपनाई जाती है। कोई आस्था भारत में कभी बलात नहीं तोंपी जाती। इस ---- से समाज को 'समरूप' बनाने की किसी भी कोशिश का विरोध किया ही जाना चाहिए।
सम्भव है, हामिद अंसारी ने कुछ समय से संघ परिवार के हिन्दुत्व के कथित एजेंडे के मुद्दे पर चल रहे विवाद के संदर्भ में यह समझकर अपने विचार प्रगट किये हों कि हिन्दू राष्ट्र मजहब या पंथ का पर्यायवाची है जबकि स्वयंसंघ के प्रमुख मोहन भागवत के अनुसार यह शब्द भौगौलिकार्थी है और भारत को अपना देश मानने वाले सभी हिन्दू हैं।
अन्त में यदि संघ प्रमुख के कथन को हामिद अंसारी विचार और विश्वास के योग्य नहीं समझते तो यहां उनके ध्यानार्थ 1965 में एक चुनाव याचिका को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायलय की पीठ द्वारा व्यक्त हिन्दू व हिन्दुत्व की व्याख्या और हमारे दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा अपनी पुस्तक 'हिन्दू न्यू आफ लाइफ' में व्यक्त विचार उद्धृत हैं।
इन दोनों के अनुसार हिन्दू शब्द भूगौलिकाथी और इतिहास सिद्ध है और हिन्दुत्व व्यापक अर्थों में एक जीवन शैली है, जीवन धारा है जो संस्कृति आधार लिये है और इसमें सभी आस्थाओं को समान मान्यता व सम्मान की व्यवस्था है। हिन्दु राष्ट्र मजहब, पंथ या रिलिजन शब्द का पर्यायवाची नहीं।
इस व्याख्या की दृष्टि से हामिद अंसारी के विचार पूरी तरह हिन्दुत्व सम्मत हैं कि 'समरूप समाज' का प्रयास उचित नहीं किन्तु उन्होंने समरूप समाज की बजाए समरूप राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल कर अपने मन्तव्य को भ्रमक बना दिया है। जो चिन्ताजनक विडम्बना है।
                                                                             - कृष्ण लाल ढल्ल
                                                                                   वरिष्ठ पत्रकार 
                                                                     26 जीएफ सरस्वती बिहार
                                                                                   जालन्धर

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